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[ पट्टावली-पराग
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बात को कोई खबर तक नहीं मिली। वे मालवा से गुजरात की तरफ विहार करते हुए चांपानेर पाए और वर्षा चातुर्मास्य वहां ठहरे। चौमारे के बाद वे अहमदाबाद पा रहे थे, बीच में एक गांव में वे महीना भर ठहरे, तब अहमदाबाद बात पहुंचो। किसी ने जाकर विजयदानसरिजो को कहा - श्री राजविजयपूरि ने प्रापको वन्दना कही है, यह सुन कर विजयदानसूरिजी को बड़ा पश्चात्ताप हुअा। उन्होंने सोचा - मैंने एक यति की बात मानकर बड़ी भूल की। राजविजयसूरि के विद्यमान रहते दूसरा पट्टधर कायम कर दिया। राजविजयसूरिजी पाए और विजयदानसूरि को वन्दन किया, तब विजयदानसूरिजी ने हीरसरिजी से कहा - उठो प्राचार्य ! बड़े प्राचार्य को वन्दना करो। यह सुनकर राजविजयसूरि ने कहा - आपने यह क्या किया ? विजयदानसूरि ने कहा - तुम्हारा निर्वाण सुनकर मैंने यह कार्य किया है। अब मेरे पट्टधर तुम राजविजयसूरि और राजविजयसूरि के पाट पर हीरविजयसरि, इस प्रकार की व्यवस्था रहेगी। परन्तु राजविजयसूरि को यह व्यवस्था पसन्द नहीं पाई और वे नाराज होकर विजयदानसूरिजी के पास से ७०० यतियों के साथ चले गये, तब बोहकल संघवी ने उन्हें दूसरे उपाश्रय में उतारा और प्राग्रह करके वर्षा चातुर्मास्य भी वहीं करवाया।
एक समय बोहकल संघवी की बहू श्री हीरविजयमूरिजी को वन्दन करने गई, तब हीरविजयसूरिजी ने कहा- पाइए राजविजयसूरि की श्राविका ! यह वचन सुनकर संघविन को गुस्सा आया और वन्दन किये बिना ही घर चली गई और प्रतिज्ञा को कि हीरविजयसूरि को वन्दना नहीं करूंगी, वह अट्टम का तप कर घर में बैठी रही, सघवी को पता लगने पर उसे पूछा, तब उसने सब बातें कहीं। सेठ ने समझा बुझाकर उसे पारणा करवाया, बोहकल संघवी, बादशाही सेठ, न्यात में अधिकारी था, ७०० घर संघवी के पीछे थे । श्री राजविजयसूरि के पास जाकर बोला-स्वामी आप श्री मानन्दविमलसूरि के शिष्य हैं, इसलिये हीरविजयसूरि के साथ न मिलें, तुम बड़े पट्टधर हो, ये छोटे हैं, अब राजविजयसूरि ने कहा-ये और हम एक ही हैं, ममता करके क्या करना है। तब संघवी ने कहा-संघविव ने नियम कर लिया
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