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[ पट्टावली-पराग
खम्भात में अकबरपुर में अपने स्वर्गवास के पहले आठ उपाध्यायों और मुनिगण को अपने पास बुला कर कहा - एक बार फिर देवसूरि के पास जाना, वह मेरा वचन प्रमाण करले तो दूसरा पट्टधर स्थापने की आवश्यकता नहीं, अन्यथा किसी योग्य पुरुष को प्रतिष्टित करना। यह कह कर उन्होंने संघ-समक्ष उपाध्यायों को सूरिमन्त्र सौंपा, बाद में श्री विजयसे नसूरि स्वर्ग सिधार गए।
प्रागे कविराज लिखते हैं :
राजनगर में देवगुरु कने रे, प्राया पुछरण वाचक माठ । तिण समे 'धरमसागर' गरिग देखोया रे पूज्य समीपे सखरे ठाठ ॥६॥
हगीगत कही सहुसने गुरु तरणी रे, काने न धरी रे गणधार । रोसावी सहु पाछा प्रावीया रे, भाप्या तिलकसूरि पट्टधार ॥७॥"
अर्थात् - विजयसेनसूरि के स्वर्गवास होने के बाद विजयसेनसूरि के कथनानुसार सोमविजयजी प्रादि पाठ उपाध्याय अहमदाबाद आचार्य देवसूरि के पास आए, तब उपाध्यायों ने विजयदेवसूरि के पास अच्छे ठाठ से धर्मसागर गणि को बैठा देखा, उपाध्यायों ने विजयसेनसूरि की बात विजयदेवसूरि को कही, पर देवसूरि ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया । परिणामस्वरूप सर्व उपाध्याय नाराज होकर वापस लौटे और विजयसेनसूरि के पट्ट पर श्री विजयतिलकसूरि को प्रतिष्ठित किया, परन्तु विजयतिलकसूरि तीन वर्ष में स्वर्गवासी हो गए, तब उनके पट्ट पर विजयपानन्दसूरि को स्थापित किया।
एक समय श्री विजयदेवसूरिजी विजयानन्दसूरिजी को मिलने पाये। वहां दोनों प्राचार्यों को आपस में अनेक बातें होने के बाद यह निश्चित हुआ कि दोनों प्राचार्य हिलमिल करके चलें और अब से यतियों की जो क्षेत्रादेश के पट्टक लिखे जाएं वे श्री देवसूरि और प्रानन्दसूरि दोनों की सहियों से लिखे जाएं। लगभग तीन वर्ष तक यह संघटन चलता रहा, परन्तु चौथे वर्ष गच्छपति श्री देवसूरिजी ने केवल अपने ही नाम से क्षेत्रादेश
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