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द्वितीय- परिच्छेद ]
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कर रहे हैं, मेरा श्रायुष्य तो अब परिमित है, परन्तु तुम दोनों योग्य हो, विद्वान् हो और परिग्रह सम्बन्धी मोह छोड़कर वही वट की वटियां जल में घोल दी हैं, सवामन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल दी, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा के फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है ।
श्री राजविजयसूरि ने सं० १५८२ में क्रियोद्धार करने वाले लघुशालिक प्राचार्य श्री आनन्दविमलसूरि के पास योगोद्वहन करके श्री राजविजयसूरि नाम रक्खा, बाद में तीनों आचार्यों ने अपने-अपने परिवार के साथ भिन्नभिन्न तीनों देशों में बिहार किया। श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने सर्वत्र फिरकर श्रावकों को स्थिर किया है, कई गांवों में प्रतिमानों की प्रतिष्ठा को नये जिनबिम्ब भरवाए, जैनशासन की महिमा बढ़ायी, सं० १५९६ तक बहुत से लुका के अनुयायी गृहस्थ तथा वेशधारक उपदेशक मूर्ति मानने वाले हुए, विचरते हुए आप सोरठ के सिपा गांव में प्राए, और वहां से प्राप अपना प्रन्तकाल निकट जान कर राजनगर आए और सं० १५६६ में गच्छ को मर्यादा निश्चित करके श्री श्रानन्दविमलसूरिजी स्वर्गवासी हुए ।
५६ विजय दानसूरि :
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विजयदानसूरिजी का वर्षा चातुर्मास्य प्रहमदाबाद में था, बाबार्य श्री राजविजयसूरि का चातुर्मास्य राधनपुर में था, चातुर्मास्य के उतरने पर श्री राज विजयसूरि श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ की यात्रार्थ प्राए, यात्रा कर जब वे वापस जाने लगे, तब राजविजयसूरि के शिष्य पं० श्री देवविनय के संसारी सगे जो धामा में रहते थे उन्हें लेने प्राये देवविजय ने उनको कहा — गुरु भादि को छोड़कर मैं अकेला नहीं आ सकता, इस से श्रावक राजविजयसूरि के साथ उनको अपने गांव ले गए और मास कल्प कराया । धामा में श्रावकों के ७०० घर थे, वो सभी पूनमीया थे । जो प्राचार्य श्री के उपदेश से पूर्णिमा पक्ष को छोड़कर सभी चतुर्दशी को पाक्षिक करने लगे। वहां से सूयंपुर भौर जीजू वाड़ा आए, श्रावकों ने उत्साह सहित नगरप्रवेश कराया और एक गृहस्थ की डेहली में उतारे गांव में छापरीया - पूनमीया के दो उपाश्रय थे,
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