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[ पट्टावली -पराग
अधिक सन्मान किया और दुर्जनों की तरफ तिरस्कार दिखाया । बादशाह के प्राग्रह से प्राचार्य विजयसेनसूरिजी ने लाहोर में दो चातुर्मास्य किये भौर प्रसंग पाकर बादशाह को उपदेश देते रहे ।
एक समय पुण्योपदेश के प्रसंग पर प्रमुदित होकर बादशाह ने श्राचार्य को कुछ मांगने को कहा। यह सुनकर प्राचार्य ने कहा - हे बादशाह ! जगत् के प्राणियों का दुख भांगने वाले राजाओं को गाय, बैल, भैंसा, भैंस की हत्या, नाऔलाद का द्रव्य लेना और निरपराधी पशु-पक्षियों को कैद करना योग्य नहीं है- इन बातों का त्याग करना ही हमारे लिये संतोष का कारण है और शाही सम्पत्ति का भी कारण है। इस बात से तुष्टमान होकर शाह अकबर ने उपर्युक्त छ: बातों के निषेध का फर्मान लिखकर अपने राज्य के सर्व सूबों में भेजा और विजयसेन सूरिजी को भी उसकी नकल दी । इस वर्ष का वर्षा चातुर्मास्य श्री विजयहीरसूरिजी ने सौराष्ट्र मंडल में किया था, प्राचार्य श्री के शरीर में बाधा बढ़ रही थी, इसलिये अपनी तरफ से लेख देकर विजयसेन सूरजी के पास पत्रवाहक भेजा और अन्तिम मिलाप के लिये अपने पास बुलाया। गुरु की आज्ञा मिलते ही विजयसेनसूरिजी ने लाहौर से विहार किया और अविच्छिन्न प्रयाणों से पाटण तक पहुँचे, तब ऊना में श्री हीरसरि का स्वर्गवास होने की बात विजयसेनस रिजी ने सनी और आगे का विहार रोका ।
श्री विजयसेनसूरि द्वारा जो कुछ धार्मिक और जिनशासन की प्रभाबना के कार्य हुए, उनकी रूपरेखा नीचे दी जाती है :
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सं० १६३२ में चम्पानेरगढ़ में जिनप्रतिष्ठा की भोर सुरतबन्दर में श्री मिश्र चिन्तामरिण प्रमुख विद्वानों की सभ्यता में श्री विजयसेनसूरिजी ने विवाद में भूषण नामक दिगम्बर भट्टारकजी को जीता ।
राजनगर में अपने उत्तराधिकारी शिष्य श्री विद्याविजय को दीक्षा दी मोर प्रतिष्ठा कराई, गन्धार बन्दर तथा स्तम्भ तीर्थ में प्रतिष्ठा कराई और चातुर्मास्य भी खम्भात में किया, वजिया राजीया द्वारा वहां चिन्तामरिण पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की । बाद में १६५४ में अहमदाबाद में जमीन में से
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