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द्वितीय-परिच्छेद ]
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गृहस्थ से १५६२ में "कटुक" (कडुपा) मत की उत्पत्ति हुई। १५७० में लुंकामत से निकल कर विजय ऋषि ने “वीजा मत" प्रचलित किया और संवत् १५७२ में नागपुरीय तपागच्छ से निकल कर उपाध्याय पावचन्द्र ने अपने नाम से मत निकाला जो माजकल "पाय चंदगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध है।
"सुविहिय मुरिणचूडामणि,-कुमयतमोमहणमिहिरसममहिमो। पाणंदविमलसूरी-सरो प्र छावण्णपट्टयरो ॥१८॥"
श्री हेमविमलसूरि के पट्टधर सुविहित-मुनिचूडामणि और कुमतरूपी अंधकार को मथन करने में सूर्य समान महिमा वाले श्री मानन्दविमलसूरि हुए।
प्राचार्य प्रानन्दविमलसूरि का १५४८ में इडरगढ़ में जन्म, १५५२ में दीक्षा और १५७० में सूरिपद हुआ था।
प्रानन्दविमलसूरि के समय में साधुनों में शिथिलता अधिक बढ़ गई थी, उधर प्रतिमा-विरोधी तथा साधु-विरोधी लुंपक तथा कटुक मत के अनुयायियों का प्रचार प्रतिदिन बढ़ रहा था। इस परिस्थिति को देखकर पानन्दविमलसूरिजी ने अपने पट्टगुरु प्राचार्य की आज्ञा से शिथिलाचार का परित्याग रूप क्रियोद्धार किया। आपके इस क्रियोद्धार में कतिपय संविग्न साधुनों ने साथ दिया, यह क्रिया-उद्धार आपने १५८२ के वर्ष में किया । प्रापकी इस त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर अनेक गृहस्थों ने "लंकामत" तथा "कडुग्रामत" का त्याग किया और कई कुटुम्ब धनादि का मोह छोड़ कर दीक्षित भी हुए।
तपागच्छ के प्राचार्य श्री सोमप्रभसूरिजी ने जेसलमेरु प्रादि मरुभूमि में जल-दौर्लभ्य के कारण साधुनों का विहार निषिद्ध किया था, उसको श्री आनन्दविमलसूरिजी ने चालू किया, क्योंकि ऐसा न करने से उस प्रदेश में कुमत का प्रचार होने का भय था। प्रतिषिद्ध क्षेत्र में भी प्रथम विद्यासागर गणि का विहार करवाया, क्योंकि कम उम्र से ही वे छद्र-छट्र की पारणा आचाम्ल से करने वाले तपस्वी थे। उन्होंने जेसलमेरु आदि स्थली
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