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शिवभूति से दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रादुर्भावि
आवश्यक मूल भाष्यकारादि श्वेताम्बर जैन ग्रन्थकार दिगम्बरों की उत्पत्ति का वर्णन नीचे लिखे अनुसार करते हैं :
'भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त किये छः सौ नो वर्ष व्यतीत हुए तब रथवीरपुर में बोटिकों का दर्शन उत्पन्न हुआ ।'
'रथवीरपुर नगर के बाहर दीपक नामक उद्यान था। वहां पर कृष्ण नामक प्राचार्य ठहरे हुए थे । अार्यकृष्ण के एक शिष्य का नाम था "सहस्रमल शिवभूत" । शिवभूति गृहस्थावस्था में वहां के राजा का कृपापात्र सेवक था । दोक्षा लेने के बाद जब वह गुरु के साथ विहार करता हुआ रथवीरपुर श्राया, तब वहां के राजा ने उसको कम्बलरत्न का दान दिया । आचार्य आर्यकृष्ण को जब इस बात का पता लगा, तो उन्होंने उपालम्भ के साथ कहा : "साधुओं को ऐस कीमती वस्त्र लेना वर्जित है, तुमने क्यों लिया ?" यह कह कर आचार्य ने उस कम्बल को फाड़ कर उसकी निषद्यायें (बैठने के प्रासन) बनाकर साधुओं को दे दी । शिवभूति को गुस्सा तो आया, पर कुछ बोला नहीं ।
एक दिन सूत्रानुयोग में जिनकल्प का वर्णन चला, जैसे : ! " जिनकल्पिक दो प्रकार के होते हैं, करपात्री और पात्रधारी । वे दोनों दो प्रकार के होते हैं : वस्त्रधारी और वस्त्र न रखने वाले । वस्त्र न रखने वाले जिनकल्पिकों की उपधि आठ प्रकार की होती है : दो प्रकार की, तीन
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