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प्रथम-परिच्छेद ]
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भी यही प्रमाणित करता है कि प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री कुदकु द विक्रम की षष्ठी शती के उत्तरार्ध के विद्वान् थे ।
कुंदकुंद ने “समयसार-प्राभृत" आदि में जो दार्शनिक चर्चा की है, उससे भी वे हमारे अनुमानित समय से पूर्वबतिकाल भावी नहीं हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने समय-प्राभृत की ३८३ आदि गाथाओं में श्वेतमृत्तिका के दृष्टान्त से अद्वैतवाद का जो खण्डन किया है, वह अद्वैतवाद वास्तव में बौद्धों का विज्ञानवाद समझना चाहिए। प्रसिद्ध बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ने अपने "प्रमाणवातिक" ग्रन्थ में बौद्ध-विज्ञानवाद का जो प्रतिपादन किया है उसी का "जहसेटियादु" इत्यादि गाथाओं में कुन्दकुन्द ने निरसन किया है, धर्मकीर्ति का कथन था कि ज्ञान और ज्ञान का विषय भिन्न नहीं है। जो नोल पीत प्रादि पदार्थों से नीलाभास पीताभास वाला पदार्थ दृष्टिगोचर होता है, वह विज्ञान-मात्र है। इसके उत्तर में प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : जिस प्रकार श्वेतमृत्तिका से मकान पोता जाता है मौर सारा मकान श्वेतमृत्तिका के रूप में देखा जाता है, फिर भी मकान मृत्तिकामय नहीं बन जाता। मकान मकान ही रहता है और उस पर पोती हुई श्वेतमृत्तिका उससे भिन्न मृत्तिका ही रहती है। इन गाथाओं की व्याख्या में टीकाकारों ने अपनी व्याख्यानों में "ब्रह्माद्वैतवाद" का खण्डन बताया है, जो यथार्थ नहीं है, क्योंकि शंकराचार्य का "ब्रह्माद्वैतवाद'' कुन्दकुन्दाचार्य के परवर्ती समय का है न कि पूर्ववर्ती समय का। प्रतः "जहसेटियादि! गाथाओं की व्याख्या विज्ञानवाद-खण्डनपरक समझना चाहिए। समयगर के इस निरूपण से भी विक्रम की षष्ठी शती के पूर्वार्धवर्ती बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के विज्ञानवाद का खण्डन करने से कुन्दकुन्दाचार्य का सत्ता-समय निर्विवाद रूप से विक्रम की षष्ठी शती का उत्तरार्ध प्रमाणित होता है ।
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