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[ पट्टावली-पराग
माघनन्दी जिनचन्द्र
कुन्दकुन्द इन्द्रनन्दी-कृत श्र तावतार के अनुसार कुन्दकुन्द उन आचार्यों में हुए हैं जिन्होंने अंगज्ञान के लोप होने के पश्चात् आगम को पुस्तकारूढ़ किया था।
कुन्दकुन्द प्राचीन और नवीन परम्परा के बीच को एक कड़ी हैं, इनसे पहले जो भद्रबाहु प्रादि श्रुतज्ञानी हो गए हैं, उनके नाम मात्र के सिवाय उनके कोई ग्रन्थ आदि अब तक प्राप्त नहीं हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य से कुछ प्रथम जिन पुष्पदन्त भूतबलि आदि प्राचार्यों ने प्रागम को पुस्तकारूढ़ किया था, उनके भो ग्रन्थों का अब तक कुछ पता नहीं चलता। परन्तु कुन्दकुन्दाचार्य के अनेक ग्रन्थ हमें प्राप्त हैं। आगे के प्राय: सभी प्राचार्यों ने इनका स्मरण किया है और अपने को कुन्दकुन्दान्वयी कह कर प्रसिद्ध किया है।
अनुमित शक सं० १०२२ के शिलालेख न० ५५ मं कुन्दकुन्द को मूल संघ का आदि प्राचार्य लिखा है।
लेख नं० १०५ की कुन्दकुन्दाचार्य की गुरु-परम्परा ऊपर दी जा चुकी है। आगे हम इसी लेख की कुन्दकुन्द के शिष्यों की परम्परा देते हैं, वह इस प्रकार है :
कुन्दकुन्द के शिष्यों की परम्परा
उमास्वाति (गृध्रपिच्छ) बलाकपिच्छ समन्तभद्र
शिवकोटि
देवनन्दी भट्टाकला
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