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द्वितीय-परिच्छेद ]
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शिथिलताएं कर दी थी, जैसे प्रत्येक गंता को अपनी निश्रा में वस्त्र की गठरी रखने की प्राज्ञा, नित्य विकृति ग्रहण की आजा, हर एक सावु को वस्त्र धोने को आज्ञा, फल-शाक ग्रहण करने को आज्ञ , साधु-साध्वो को मोवी के प्रत्याख्यान में निर्विकृतिक ग्रहण करने की छूट, नित्य दुविहाहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना, गृहस्थों को आकृष्ट करने के लिए प्रतिक्रमण कराने की आज्ञा, संविभाग के दिन श्रावक के घर गीतार्थ को जाना चाहिये, साध्वी का लाया हुमा पाहार लेना ऐसी प्ररूपणा, लेप की सन्निधि न मानना, तत्काल उतारा हम्रा गर्म जल लेने को आज्ञा, इत्यादि अनेक बातें जो क्रियामागं में शिथिल साधुओं के लिए अनुकूल हों ऐसी प्ररूपणाएं करके उन्हें अपने अनुकूल किया। श्री जगच्च द्ररिजी ने देवद्रव्यादि दूषित जिस पौषधशाला में उतरना निषिद्ध किया था, उसी वृद्ध पौषधशाला में १२ वर्ष तक विजयचन्द्रसूरि ठहरे रहे। जिन प्रव्रज्यादि कृत्यों के करने में गुरु की प्रज्ञा ली जाती थी, उन कार्यों को भी गुरु-प्राज्ञा के विना करने लगे थे। इन सब बातों का देवेन्द्रसूरिजी को पता लग चुका था, इसलिये वे विजयचन्द्रसूरि वाली पौषधशाला में न जाकर एक दूसरो शाला में ठहरे, जो विजय चन्द्रसूरि वाली शाला से अपेक्षाकृत छोटी थी। इस प्रकार देवेन्द्रसूरि तथा विजयचन्द्रसूरि भिन्न भिन्न शाला में उतरे, तब से उन दोनों गुरु-भाइयों का साधु परिवार लघु पोषधशालिक और वृद्ध पौषधशालिक के नाम से प्रसिद्ध हुमा।
एक समय पालनपुर के श्रावक-संघ ने श्री देवेद्रसूरि को आग्रह पूर्वक विज्ञप्ति कर पालनपुर पधारने और पदस्थापनादि-शासनोन्नति के कार्यों द्वारा पालनपुर के संघ को कृतार्थ करने की प्रार्थना की, प्राचार्य श्री ने पालनपुर के संघ की बोनती स्वीकृत की और पालनपुर जाकर संवत् १३२३ के वर्ष में "श्रीविद्यानन्द' को प्राचार्य पद दिया और उनके छोटे
१. गुर्वावली तथा पट्टावली सूत्र की टीका में विद्यानन्द का आचार्य पद मतान्तर से १३०४ में होना सूचित किया है, एक तो विद्यानन्द का दीक्षापर्याय उस समय केवल २ वर्ग का था, इतने अल्प पर्याय में आचार्य पद देने की पद्धति तब तक तपागच्छ में प्रचलित नहीं हुई थी, दूसरा कारण यह भी है कि, 'खरतर बृहद् गुर्वावली' में संवत् १३
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