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[पट्टावली-पराग
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देवभद्र गणि की सहायता से क्रियोद्धार करके उग्रविहार करने लगे। जगच्चन्द्रसूरि बड़े तपस्वी थे। जीवनपर्यन्त प्राचाम्ल तप का भिग्रह धारण करके विहार कर रहे थे, आपको आचाम्ल करते १२ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। आपकी इस उग्र तपस्या और विद्वत्ता की बातें सु कर पापको प्राधाटपुर (मेव ड़) के राणाजी ने ' महातपा" के नाम से सम्बोधित किया। "महातपा" में से 'महा' शब्द निकल कर आपका “तपा" यह विरुद रह गया। यह घटना वि० सं० १२८५ में घंटी थो, सब तक महावीर की शिष्य-परम्परा में ६ नाम रूढ़ हो गए थे। प्रार्य सुहस्ती तक महावीर की शिष्य सन्तति "निर्ग्रन्थ' नाम से प्रसिद्ध थी, सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के समय में वह "कोटिक गण" के नाम से पहिचानी जाने लगी। वज्रसेन के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के समय में श्रमण गण का मुख्य भाग “चन्द्रकुल" के नाम से प्रख्यात हुआ। श्री समन्तभद्र के समय में वह “वनवासी गण" के नाम से सम्बोधित होने लगा, श्री सर्वदेवसूरि के समय में उसका नाम "कटगच्छ” पड़ा, श्री जगच्चन्द्रसूरि के समय से वही श्रमण-समुदाय "तपागण" अथवा "तपागच्छ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगच्चन्द्रसूरि के पट्ट पर ४५वें प्राचार्य श्री देवेन्द्रसूरि हुए। देवेन्द्रसूरि विद्वान् होने के उपरान्त बड़े त्यागी साधु थे, इनका विहार बहुधा गुजरात और मालवा की तरफ होता था। आपने उज्जैन के जिनभद्र१ सेठ के पुत्र बीरधवल को विवाहोत्सव दर्मियान प्रतिबोध देकर विक्रम संवत् १३०२ में दक्षा दी थी
और उसका नाम "विद्यानन्द' रखा था। कुछ समय के ब.द उसके भाई को भी श्रमणधर्म में दीक्षित किया था और उसका नाम "धर्मकीति" रक्खा था। लम्बे काल तक मालवे में विचर कर देवेन्द्रसूरिजी गुजरात में स्तम्भतीर्थ पधारे। देवेन्द्रसूरिजी ने जब खम्भातः से मालवा की तरफ विहार किया था, उस समय उनके छोटे गुरु-भाई श्री विजयचन्द्र रि खंभात में ये पौर १२ वर्ष से अधिक समय तक मालवा में विचर कर वापस गुजरात पाकर खम्भात पहुंचे तो विजयचन्द्रसूरि उस समय तक खम्भात में ही रहे हुए थे, इतना ही नहीं उन्होंने धीरे-धीरे साधुओं के प्राचार में अनेक
१. धवल के पिता श्रेष्ठी का नाम मुनिसुन्दर-गुर्वावली में जगच्चन्द्र लिखा है।
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