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द्वितीय-परिच्छेद ]
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समुद्रसूरि को गुर्वावलीकार खोमाण राजा का कुलज बताते हैं । मेवाड राणानों में खोमारण नामक तीन राणे हुए हैं, "बापा रावल" नामक मेवाड़ के रागानों में प्रथम था, जो खोमाण भी कहलाता था। यदि हम समुद्रसूरि को खीमारण कुलज मान लें, तो भी समुद्रमूरिजी का समय विक्रम की सप्तम शती के बाद में प्राता है। इनके उत्तराधिकारी द्वितीय मानदेव. सूरि को प्रसिद्ध श्रुतधर श्री हरिभद्रसूरि जी का मित्र बताते हैं और हरिभद्र - सूरिजी का समय विक्रम की अष्टम शती का उत्तराद्धं निश्चित हो चुका है, इस दशा में द्वितीय मानदेवसूरि से चतुर्थ पीढ़ी पर पाने वाले श्री रविप्रभाचर्य का सत्ता-समय विक्रम को सप्तम शतो बताना संगत नहीं होता।
"अट्ठावीसो विबुहो २८, एगुणतीसो गुरू जयाणंदो २६ । तीसो रविपदो ३०, इगतीसो जसोवसूरिवरो ३१ ॥१०॥ बत्तीसो पज्जुण्णो ३२, तेतीसो माणदेव जुगफ्वरो ३३ ।
पउतीस विमलवंदो ३४, पणतीसूज्जोमरणो सूरी ३५ ॥११॥" 'मानदेवसूरि के पट्टवर श्री विबुधप्रभसूरि, विबुधप्रभसूरि के पट्टधर श्री जयानन्दसूर, जयानन्दसूरि के पट्ट पर श्री रविप्रभसूरि, रविप्रभसूर के पट्ट पर श्री यशोदे सरि, यशोदेक्स रि के पट्टे पर श्री प्रद्युम्न सूरि, प्रद्युम्नहरि के पट्ट पर श्री मानदेवसूर, मानदेवसूरि के पट्ट पर श्री विमलचन्द्रसूरि और विमलचन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री उद्योतनसूरि ३५३ हुए ।१०।११।।'
विमलचन्द्रसूरि के सत्त -समय की गुर्वावली आदि में चर्चा नहीं है। परन्तु प्रभावकचरित्रान्तर्गत वीरमूरि के प्रबन्ध में विमलचन्द्र सूरि के हस्तदीक्षित वौरसूर का स्वर्गवास विक्रम संत् ६६१ में होना लिखा हैं, इससे प्रतीत होता है कि वीरसूरि के दीक्षा-गुरु श्री विमलव द्र का समय विक में की दशवीं शती का मध्यभाग हो सकता है ।
आचार्य श्री उद्योतनसूरि का समय विक्रम की देशवीं शती का उत्तरभाग गुर्वावलीकार ने बताया है, लिखा है कि विक्रम संवत. में प्राचार्य उद्योतनसूरि ने बाबू के निकट एक क्ट के नीचे बैठे हुए सर्वदेव प्रमुख अपने
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