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प्रथम-परिच्छेद ]
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आचार्य हेमचन्द्र का समय विक्रम की बारहवीं और तेरहवीं शती का मध्यभाग था, तब भट्टारक शुभचन्द्र सोलहवीं-सत्रहवीं शती के मध्यवर्ती ग्रन्थकार थे। कृति का मिलान करने से ही ज्ञात होता था कि यह श्लोक भट्टारकजी के हैं और अमुक श्लोक पूर्वाचार्य कृत । भट्टारकजी की कृति बिल्कुल साधारण कोटि की है, तब हेमचन्द्र आदि विद्वानों की कृति प्रोजस्वी होने से छिपी नहीं रहती। पण्डितजो की उक्त विचारणा से मुझे बड़ी ग्लानि हुई, क्योंकि ऐसे लेखकों से ही सम्प्रदायों के बीच कटुता बढ़ती और बनी रहती है।
मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख के अन्तर्गत किसी कथन से किसी को दुःख नहीं लाना चाहिए, क्योंकि मेरा अभिप्राय अपने सम्प्रदाय की सत्यता प्रतिपादन करने का है, न कि दिगम्बर सम्प्रदाय के खण्डन का ।
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