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आधुनिक दिगम्बर समान के संघटक आचार्य कुन्दकुन्द और महारक वीरसेन
हम ऊपर देख आये हैं कि दिगम्बर शिवभूति ने जो सम्प्रदाय चलाया था, यद्यपि कर्नाटक देशों में इसका पर्याप्त मान और प्रचार था, तथापि विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग इसके साधु, राजा वगैरह की तरफ से भूमिदान वगैरह लेने लगे थे। कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता प्रच्छी नहीं लगी। उन्होंने केवल स्थूल-परिग्रह का ही नहीं बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो पापवादिक उपधि" के नाम से वस्त्र, पात्र की छूट पी उसका भी विरोध किया और तब तक प्रमाण माने जाते श्वेताम्बर पागम ग्रन्थों को भी उद्धारकों ने अप्रामाणित ठहरायः और उन्हीं प्रागमों के आधार पर अपनी तात्कालिक मान्यता के अनुसार नये धार्मिक ग्रन्थों का निर्माण शुरु किया। कुन्दकुन्द वगैरह जो प्राकृत के विद्वान् थे, उन्होंने प्राकृत में और देवनन्दी आदि संस्कृत के विद्वानों ने संस्कृत में ग्रन्थ निर्माण कर अपनी परम्परा को परापेक्षता से मुक्त करने का उद्योग किया।
यद्यपि शुरु-शुरु में उन्हें पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई। यापनीय संघ का अधिक भाग इनके क्रियोद्धार में शामिल नहीं हुआ और शामिल होने वालों में से भी बहुत सा भाग इनकी सैद्धान्तिक क्रान्ति के कारण विरुद्ध हो गया था, तथापि इनका उद्योग निष्फल नहीं हुआ। इनके प्रन्थ और विचार धीरे-धीरे विद्वानों के हृदय में घर करते जाते थे। विक्रम की पाठवीं, नवीं और दशवीं सदी के प्रकलंकदेव, विद्यानन्दो आदि दिग्गज दिगम्बर विद्वानों के द्वारा त.किक पद्धति से परिमार्जित होने के उपरान्त
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