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[ पट्टावली-पराग
आचार-मार्ग छोड़ कर गृहस्थोचित चैत्य कार्यों में लग चुके थे । जैन इतिहास से यह बात सिद्ध है कि विक्रम की छठी सातवीं सदी से साधु चैत्यों में रह कर उनकी व्यवस्था करने लग गए थे और छठी से दसवीं सदी तक उनका पूर्ण साम्राज्य रहा था । वे अपने-अपने गच्छ सम्बन्धी चैत्यों की व्यवस्था में सर्वाधिकारी के ढंग से काम करते थे । उस समय के सुविहित प्राचार्य इस प्रवृत्ति का विरोध भी करते थे, परन्तु उन पर उसका कोई असर नहीं होता था । इस समय को श्वेताम्बर ग्रंथकारों ने "स्वास प्रवृत्ति समय के नाम से उद्घोषित किया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में विक्रम की ग्यारहवीं शती से "भट्टारकोय समय" की प्रसिद्धि हुई है । आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्व उक्त समय के बाद का हैं, इसी से तत्कालीन प्रवृत्तियों का खण्डन किया है, इससे यह सिद्ध होता है कि वे छठी सदी के पूर्व के व्यक्ति नहीं थे ।
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( ५ ) " रयणसार" को १०५ तथा १०८ से १११ वीं तक की गाथानों में कुन्दकुन्द ने साधुत्रों की अनेक शिथिल प्रवृत्तियों का खण्डन किया है, जिनमें "राजसेवा, ज्योतिष विद्या, मन्त्रों से प्राजीविका, धनधान्य का परिग्रह, मकान, प्रतिमा, उपकरण आदि का मोह, गच्छ का आग्रह, वस्त्र और पुस्तक की ममता " आदि बातों का खण्डन लक्ष्य देने योग्य है । कहने की शायद ही जरूरत होगी कि उक्त खराबियां साधु समाज में छठी और सातवीं सदी में पूर्ण रूप से प्रविष्ट हो चुकी थी। पांचवीं सदी में इनमें से बहुत कम प्रवृत्तियां साधु-समाज में प्रविष्ट होने पायी थीं और विक्रम की तीसरी चौथी शताब्दी तक तो ऐसी कोई भी बात जैन निर्ग्रन्थों में नहीं पायी जाती थी । इससे यह निस्संदेह सिद्ध होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की छठी शताब्दी के बाद के ग्रन्थकार हैं । यदि ऐसा न होता और दिगम्बर जैन पट्टावलियों के लेखानुसार वे विक्रम की प्रथम श्रथवा दूसरी शती के ग्रन्थकार होते तो छठी शती की प्रवृत्तियों का उनके ग्रन्थों में खण्डन नहीं होता ।
(६) कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर " गच्छ" शब्द का प्रयोग किया है, जो विक्रम की पांचवीं सदी के बाद का पारिभाषिक
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