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प्रथम-परिच्छेद ]
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दिया है : “सम्भूयसट्ठी' इस शुद्ध पाठ को बिगाड़ कर किसी लेखक ने "सम्भूयस्स?" बना दिया, जिसका अर्थ किया गया सम्भूत के ८ पाठ वर्ष, बस एक इकार के प्रकार के रूप में परिवर्तन होने से ६० के ८ बन गये । मजा तो यह है कि यह भूल पाज की नहीं, कोई ८०० सौ वर्षों से भी पहले की है। इसी भूल के परिणामस्वरूप प्राचार्य श्री हेमचन्द्रजी ने भद्रबाहु स्वामी को जिननिर्वाण से १७० वर्ष में स्वर्गवासी होना लिखा है और इसी भूल के कारण से पिछले पट्टावली-लेखकों ने आर्य स्थूलभद्रजी को निर्वाण से २१५ में स्वर्गवासी हाना लिखा है, इस भूल का परिणाम बहुत ही व्यापक बना है, इस सम्बन्ध में हम एक दो ही उदाहरण देकर इस प्रसंग को समाप्त कर देंगे।
सभी पट्टावलोकारों ने प्रार्य स्थूलभद्रजी का स्वर्गवास वीरनिर्वाण २१५ में माना है । स्वर्गवास की मान्यता के अनुसार इनकी दीक्षा १४६ में आती है, क्योंकि उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी और ६१ वर्ष तक ये जीवित रहे थे, इस प्रकार १४६ में दीक्षित स्थूलभद्र मुनि अपने गुरु सम्भूतविजयजी के पास अनेक वर्षों तक रह कर पूर्वश्रुत का अध्ययन कर सकते थे परन्तु पठन-पाठन के सम्बन्ध में सर्वत्र भद्रबाहु स्थूलभद्र का ही गुरु-शिष्य भाव दृष्टिगोचर होता है, इससे ज्ञात होता है कि स्थूलभद्र की दीक्षा का समय पट्टावलीकारों के माने हुए समय से बहुत परवर्ती है। शायद सम्भूतविजयजो के अन्तिम वर्ष में ही स्थूलभद्र दीक्षित हुए होंगे।
आर्य सुहस्ती स्थूलभद्रजी के हस्तदीक्षित शिष्य थे। उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में स्थूलभद्रजी के पास दीक्षा लो थी और १०० वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २९१ के वर्ष में उनका स्वर्गवास हुआ था, ऐसा पट्टावलीकार लिखते हैं। पट्टावलीकारों के उक्त लेखानुसार प्रार्य सुहस्ती की दीक्षा और स्थूलभद्र के पास इनके शिष्य मार्य महागिरि तथा मार्य सुहस्ती का १० पूर्व पढ़ना असम्भव हो जाता है। इससे मानना होगा कि स्थूलभद्र का स्वर्गवास २१५ में नहीं पर २२१ के बहुत पीछे हुमा है। स्थूलभद्र जी ने प्रार्य सुहस्ती को जुदा गण दिया था, ऐसा निशीथ विशेष
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