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प्राचीन स्थविरकल्पी जैन श्रमों का आचार
वीर निर्वाण से ६०६ वर्ष के बाद रथवीर नामक नगर में आचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति ने सर्वथा नग्न रहने के सिद्धान्त को पुनरुज्जीवित किया। उसके पूर्वकाल में जैन श्रमणों में सर्वथा नग्न रहने का व्यवहार बन्द सा हो गया था, जो कि "प्राचारांग" सूत्र में श्रमणों को तीन, दो, एक वस्त्रों से निर्वाह करने का आदेश था और सर्वथा वस्त्रत्याग की शक्ति होती वह एक वस्त्र भी नहीं रखता था, परन्तु ये वस्त्र सर्दी में प्रोढ़ने के काम में लिये जाते थे, परन्तु इस प्रकार का कठिन भाचार महावीर निर्वाण को प्रथम शती में ही व्यवच्छिन्न हो चुका था। अन्तिम केवली जम्बू के निर्वाण तक "वस्त्रधारी निर्गन्थ स्थविर कल्पी" और "सर्वथा वस्त्रत्यागी निग्रन्थ जिनकल्पी" कहलाते थे। दोनों प्रकार के श्रमण महावीर के निर्ग्रन्थ श्रमण-संघ में विद्यमान थे, परन्तु जम्बू के निर्वाणानन्तर संहनन, देश, काल मादि की हानि होती देखकर सर्वथा नग्न रहने का सिद्धान्त स्थविरों ने बन्द कर दिया था। दिगम्बर परम्परा को मौलिक मानने वाले विद्वानों की मान्यता है कि "महावीर के तमाम श्रमण निर्ग्रन्थ महावीर के समय में और उसके बाद भी श्रुतधर श्री भद्रबाहु स्वामी के समय तक नग्न ही रहते थे, परन्तु मौर्यकाल में होने वाले १२ वार्षिक दुर्भिक्ष के समय में जो जैन श्रमण दक्षिण में न जाकर मध्यभारत के प्रदेशों में रहे, उन्होंने परिस्थितिवश वस्त्र धारण किये और तब से "श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई।"
दिगम्बर विद्वानों का उपर्युक्त कथन केवल निराधार है, क्योंकि महावीर के समय में भी अधिकांश निग्रन्थ साधु "स्थविर-कल्प" का ही
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