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[पट्टावला-पराग
व्याख्या इस प्रकार से करोगे तब तो कर्म से जीत्र वियुक्त होगा ही नहीं, अन्योन्य अविभक्त होने से जीवप्रदेशों की तरह । इस सूत्र की व्याख्या इस प्रकार करो, जैसे : कंचुकी-पुरुष का कंचुक स्पृष्ट होकर रहता है, बद्ध होकर नहीं। इसी प्रकार कर्म भी जीव से बद्ध न होकर स्पृष्ट होकर उसके साथ रहता है। इस प्रकार गोष्ठामाहिल की व्याख्या सुनकर विन्ध्य ने कहा : गुरु ने तो हम लोगों को इसी प्रकार का व्याख्यान सिखाया है। गोष्ठामाहिल ने कहा : वह इस विषय को नहीं जानता, व्याख्यान क्या करेगा। इस पर विन्ध्य शंकित होकर पूछने को गया, इसलिए कि शायद मेरे समझने में गलती हुई हो। उसने जाकर दुर्बलिका पुष्यमित्र को पूछा, तब उन्होंने कहा : जैसा मैंने कहा था वैसा ही तुमने समझा है. इस पर गोष्ठामाहिल का वृत्तान्त कहा, तब गुरु ने कहा : गोष्ठामाहिल का कथन मिथ्या है। यहां पर उसकी प्रतिज्ञा ही प्रत्यक्ष विरोधिनी है, क्योंकि मायुष्यकर्म-वियोगात्मक मरण प्रत्यक्षसिद्ध है, उसका हेतु भी अनैकान्तिक है, क्योंकि अन्योन्य अविभक्त पदार्थ भी उपाय से वियुक्त होते हैं, जैसे : दूध से पानी, दृष्टान्त भी साधनधर्मानुगत नहीं है। स्वप्रदेश का युक्तत्व मसिद्ध होने से अपने स्वरूप से अनादि काल से कर्म जीव से भिन्न है । अपने अनुयोगधर के पास कमबंध सम्बन्धी बिवरण सुनने के बाद विन्ध्य ने गोष्ठामाहिल को कहा : प्राचार्य इस प्रकार कहते हैं, इस पर वह मौन हो गया। मन में वह सोचता था, अभी इसको पूरा होने दो, बाद में मैं इकी गलतियां निकालूगा।
एक दिन नवम पूर्व में साधुओं के प्रत्याख्यान का वर्णन चलता था, जैसे : "प्राणातिपात का त्याग करता हूं, यावज्जीवनपर्यन्त" गोष्ठामाहिल ने कहा : इस प्रकार प्रत्याख्यान की सीमा बांधना अच्छा नहीं है, किन्तु प्रत्याख्यान के कालपरिमाण की सीमा न बांध कर प्रत्याख्यान कालपरि. माणहीन करना ही श्रेयस्कर है। जिनका परिमाण किया जाता है, वे प्रत्याख्यान दुष्ट हैं, क्योंकि उनमें प्राशंसा दोष होता है। इस प्रकार प्रज्ञापन करते हुए गोष्ठामाहिल को विन्ध्य ने कहा : जो तुमने कहा वह यथार्थ नहीं है। इतने में नवम पूर्व का जो अवशेष भाग था वह समाप्त
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