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प्रथम-परिच्छेद ]
जहां कहीं जैन श्रावकों का प्रसंग माया है वहां सर्वत्र "निगण्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका" अथवा "निगण्ठ-सावका" इस प्रकार श्रावक शब्द का ही उल्लेख हुआ है, केवल निग्गन्य शब्द का नहीं। इस दशा में "निगण्ठ" शब्द का श्रावक अर्थ करना कोरी हठधर्मी है ।
बौद्ध सूत्र "मज्झिम-निकाय' में निर्ग्रन्थ संघ के साधु "सच्चक" के मुख से बुद्ध के समक्ष गोशाल मंखलिपुत्त तथा उसके मित्र नन्दवच्छ पौर किस्ससंकिच्च के अनुयायियों में पाले जाने वाले प्राचारों का वर्णन कराया है। सच्चक कहता है :
"ये सर्व वस्त्रों का त्याग करते हैं (अचेलका) सर्व शिष्टाचारों से दूर रहते हैं (मुक्ताचारा), प्राहार अपने हाथों में ही चाटते हैं (हस्तापलेखणा)" इत्यादि।
सोचने की बात है कि यदि निर्ग्रन्थ जैन श्रमण सच्चक स्वयं अचेलक और हाथ में भोजन करने वाला होता, तो वह आजीविक भिक्षुओं का (हाथ चाटने वाले) आदि कह कर उपहास कभी नहीं करता। इससे भी जाना जाता है कि महावीर के साधु वस्त्र पात्र अवश्य रखते थे।
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