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प्रथम-परिच्छेद ]
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जो क्रिया जिस कार्य के लिए प्रवृत्त होती है वह अपने पीछे कुछ कार्य करके ही विराम पाती है, क्योंकि निश्चय नय क्रिया-काल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानता है, परन्तु रुग्ण जमालि के दिमाग में यह नयवाद नहीं उतरा और कहने लगा : जब तक कोई भी कार्य पर्थ-साधक नहीं बनना, तब तक उसे "हा" नहीं कहना चाहिए। संस्तारक हो रहा था, उसे हुआ कहा पर वह “शयाक्रियोपयुक्त" नहीं हुमा, फिर “हुआ" कहने से क्या मतलब निकला ? सत्य बात तो यह है कि "पूर्ण हुए को ही 'हुप्रा' कहना चाहिए जो ऐसा नहीं कहते वे असत्यभाषी हैं।" कार्य एक समय में नहीं बहुतेरे समयों के अन्त में निष्पन्न होता है।।
जमालि का उक्त अभिनिवेश देख कर अधिकांश श्रमण उसे छोड़ कर महाबोर के पास चले गये। फिर भी जमालि पाप जीवनपर्यन्त अपने दुराग्रह के कारण अकेला ही "बहुरत" वाद का प्रतिपादन करता हुमा निह्नव के नाम से प्रसिद्ध हुप्रा और महावीर के वचन का विरोध करता रहा।
प्रियदर्शना साध्वी, जो गृहस्थाश्रम में महावीर की पुत्री और जमालि की भार्ण थी, एक हजार स्त्रीपरिवार के साथ दीक्षित होकर महावीर के श्रमतीसंघ में दाखिल हुई थी। वह भी जमालि के राग से उसके मत को खरा मानती थी और अपनी हजार श्रमणियों के परिवार से परिवृत हुई प्रियदर्शना श्रावस्ती में ढंक नामक महावीर के कुंभकार श्रमणोपासक की भाण्डशाला में ठहरी हुई थी। वह जमालि के बहुसामयिक सिद्धान्त का उपदेश कर रही थी। कुंभकार ढंक ने अपने प्रापाक-स्थान (निवाहे) से एक प्राग की चिनगारी साध्वी की संघाटी पर फेंकी, संघाटी के सुलगते ही प्रियदर्शना ने कहा : श्रावक ! यह क्या किया ? मेरी संघाटी (चद्दर) जला दी ! ढंक ने कहा : यह क्या कहती हो, संघाटो जलाई ? अभी तो संघाटी जलने लगी है, जली कहां ? यहां साध्वी समझ गई, बोली : अच्छा उपदेश दिया ढंक ! प्रच्छा उपदेश दिया। वह अपनी हजार साध्वियों के साथ जाकर महावीर के श्रमणो-संघ में मिल गई, फिर भी जमालि ने अपने नूतन सिद्धान्त का त्याग नहीं किया।
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