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[ पट्टावली-पराग
(२) जीवप्रदेशवादी तिष्यगुप्त
भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुए १६ वर्ष हुए तब ऋषभपुर अर्थात् राजगृह में जीवप्रदेशवादी दर्शन उत्पन्न हुग्रा । इसका विशेष विवरण इस प्रकार है : - एक समय चतुर्दश पूर्वधर वसु नामक प्राचार्य राजगृह नगर के गुणशिलक-चैत्य में ठहरे हुए थे। वसु के तिष्यगुप्त नामक शिष्य था, जो प्रात्मप्रवाद पूर्वगत यह पालापक शिष्यों को पढ़ा रहा था, जैसे :
"एगे भंते ! जोवपएसे जोवेत्ति वत्तव्वं सिया ? नो इणम? सम?, एवं दो जीवपएसा-तिण्णि-संखेज्जा-असंखेज्जा वा, जाव एगेरणावि पदेसेण ऊरणो णो जीवोत्ति वत्तव्वं सिया, जम्हा कसिणे-पडिपुण्णे-लोगागासपदेसतुल्लपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं ।"
अर्थात् 'हे भगवन् ! एक प्रात्मप्रदेश को जीव कह सकते हैं ?, इस प्रश्न का उत्तर मिला, यह बात नहीं हो सकतो। इसो प्रकार दो जीवप्रदेश, तीन जीवप्रदेश, संख्येय जीवप्रदेश, असंख्येय जीवप्रदेश भी जीव नाम को प्राप्त नहीं कर सकते। यावत् प्रात्म-प्रदेशों के पिण्ड में से एक भी प्रदेश कम हो, तब तक उसको जोव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण लोकाकाश-प्रदेशतुल्य प्रदेश वाला जीव ही “जोव" इस नाम से व्यवहृत होता है।'
जीव सम्बन्धी उक्त व्याख्या पर चिन्तन करते हुए, तिष्यगुप्त के मन में यह विचार आया-जब कि एक आदि प्रदेशहीन 'जीव', 'जीव' नहीं है। यावत् एक प्रदेशहीन प्रात्मप्रदेशपिण्ड भी 'जीव' नाम को नहीं पाता, किन्तु अन्तिम प्रदेशयुक्त ही जोव नाम प्राप्त करते हैं, तो वह एक अन्तिम प्रदेश ही जीव है, यह क्यों न मान लिया जाय ? क्योंकि वही प्रदेश जीवभाव से भावित है। इस प्रकार का प्रतिपादन करते हुए तिष्यगुप्त को गुरु ने कहा : यह बात ऐसी नहीं है जैसी तुम समझ रहे हो। ऐसा मानने पर जीव का ही प्रभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे अभिमत "अन्त्य जीव
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