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[ पट्टावली -पराग
पड़ गया था, खासकर केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति श्रादि बातों के एकान्त निषेध की प्ररूपणा प्रारम्भ कर दी, तब से इन्होंने इन आगमों को अप्रामाणिक कह कर छोड़ दिया और नई रचनाओं से अपनी परम्परा को समृद्ध करने लगे थे ।
दिगम्बर विद्वान महावीर के गर्भापहार की बात को अर्वाचीन मानते हैं; परन्तु यह मान्यता दा हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है, ऐसा कथन डॉ० हर्मन जैकोब आदि विद्वानों का है । यह कथन अटकल मात्र नहीं, ठोस सत्य है । इस विषय में जिनको शंका हो, वे मथुरा के कंकाली टीला में से निकले हुए "गर्भापहार का शिलापट्ट" देख लें, जो प्राजकल लखनऊ के म्युजियम में सुरक्षित हैं। प्राचीन लिखित कल्पसूत्रों की पुस्तकों में जैमा इस विषय का चित्र मिलता है, ठीक उसी प्रकार का दृश्य उक्त शिलापट्ट पर खुदा हुआ है । माता त्रिसला और पंखा भलने वाली दामी को भवस्वापिनी निद्रा में सोते हुए प्रोर हिरन जैसे मुख वाले हरिनैगमेषी का प्रपने हस्त- संपुट में महावीर को लेकर ऊर्ध्वमुख जाता हुआ बताया है । इस दृश्य के दर्शनार्थी लखनऊ के म्युजियम में नं० जे ६२६ वाली शिला की तलाश करें ।
इसी प्रकार भगवान् महावीर की " ग्रामलकीक्रीडा" सम्बन्धी वृत्तान्तदर्शक तीन- शिलापट्ट कंकाली टोला में से निकले हैं मोर इस समय मथुरा के म्युजियम में सुरक्षित हैं । इन पर नम्बर १०४६ F ३७ तथा १११५ हैं, उपर्युक्त दोनों प्रसंगों से सम्बन्ध रखने वाले शिलालेख भी वहां मिलते हैं ।
पाठकगण को ज्ञात होगा कि महावीर की वर्णन भी जैन श्वेताम्बर शास्त्रों में ही मिलता है, इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है ।
उपर्युक्त दो प्रसंगों के प्राचीन लेखों और चित्रपटों से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि श्वेताम्बर जैन भागमों में वरिणत गर्भापहार नौर श्रामलकी क्रीडा का वृत्तान्त दो हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है ।
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"श्रामलकीकीडा" का दिगम्बरों के ग्रन्थों में
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