________________
प्रथम-परिच्छेद ]
-
व हमारे पूर्वाचार्यों ने ही यह दावा किया हैं, बल्कि उन्होंने तो भिन्न-भिन्न समयों में अंगसूत्र किस प्रकार व्यवस्थित किये और लिखे गये, यह भी स्पष्ट लिख दिया है। ___गुरु-शिष्य क्रम से आये हुए सूत्रों की भाषा और शंली में हजार पाठ सौ वर्षों में कुछ भी परिवर्तन न हो यह सम्भव भी नहीं है। यद्यपि सूत्रों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा उस समय की सीधोसादी लोकभाषा थी, परन्तु समय के प्रवाह के साथ ही उसकी सुगमता प्रोझल हो गई और समझने के लिए व्याकरणों की आवश्यकता हुई। प्रारम्भ में व्याकरण तत्कालीन भाषानुगामो बने, परन्तु पिछले समय में ज्यों-ज्यों प्राकृत का स्वरूप अधिक मात्रा में बदलता गया त्यों-त्यों व्यःकरणों ने भी उसका अनुगमन किया। फल यह हुआ कि हमारी “सौत्र-प्राकृत" पर भी उसका असर पड़े बिना नहीं रहा। यही कारण है कि कुछ सूत्रों को भाषा नयी-सी प्रतीत होती है।
प्राचीन सूत्रों में एक ही पालापक, सूत्र और वाक्य को बार-बार लिखकर पुनरुक्ति करने का एक साधारण नियम-सा था। यह उस समय की सर्वमान्य शैली थी। वैदिक, बौद्ध और जैन उस समय के सभी ग्रन्थ इसी शैली में लिखे हुए हैं, परन्तु जैन आगमों के पुस्तकारूढ़ होने के समय यह शैली कुछ अंशों में बदलकर सूत्र संक्षिप्त कर दिये गये और जिस विषय की चर्चा एक स्थल में व्यवस्थित रूप से हो चुको होती, उसे अन्य स्थल में संक्षिप्त कर दिया जाता था और जिज्ञासुमों के लिए उसी स्थल में सूचना कर दी जाती थी कि “यह विषय अमुक सूत्र अथवा अमुक स्थल में देख लेना" । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी भी बातें, जो उस समय शास्त्रीय मानी जाने लगी थी, उचित स्थान में यादी के तौर पर लिख दी गई जो आज तक उसी रूप में दृष्टिगोचर होती हैं और अपने स्वरूप से ही वे नयी प्रतीत होती हैं।
दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले उन्हीं पागमों को प्रमाण मानता था, जिन्हें आज तक श्वेताम्बर जैन मानते आए हैं। परन्तु छठी शताब्दी से जब कि दिगम्बर सम्प्रदाय बहुत-सी बातों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुदा
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org