________________
प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण - निरूपित : २. नन्दी-स्थविरावली : सानुवाद
नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में सूत्रकार ने अपनी परम्परा के अनुयोगधरों का सविस्तर वर्णनपूर्वक वन्दन किया है। ये स्थविर अनुयोगधर वाचक थे, न कि गुरु-शिष्य के क्रम से पाए हुए पट्टधर, किसी अनुयोगधर के बाद उनका शिष्य ही अनुयोगधर बना है तो अनेक अनुयोगधरों के बाद अन्य श्रुतधर वाचक पद प्राप्त कर वाचकों को परम्परा में पाए हैं। यह परम्परा अनुयोगधरों की है, यह बात देवद्धिगणिजी ने स्वयं अन्तिम गाथा ४३वीं में सूचित की है।
नन्दी-स्थविरावली की मूल गाथाएँ नीचे दी जाती हैं। माथाओं का अंक सूत्रोक्त ही दिया गया है :
"सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छ सिज्जंभवं तहा ॥२३॥ जसभई तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । भद्दबाहुं च पाइन्न, थूलभदं च गोयमं ॥२४॥ एलावच्चसगोत्त, वंदामि महागिरि सुहत्यि च ।
तत्तो कोसिअगोतं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥२५॥" मर्थ : 'अग्निवैश्यायनगोत्रीय सुधर्मा, काश्यपगोत्रीय जम्बू, कात्यायनगोत्रीय प्रभव तथा वत्सगोत्रीय शय्यम्भव को वन्दन करता हूँ। तुंगियायनगोत्रीय यशोभद्र, माठरगोत्रीय सम्भूत, प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org