________________ (25) वास्तव में यह सूक्त अग्नि सूक्त है। इस सूक्त में अग्नि पद से किसका ग्रहण करना चाहिए? इसका निश्चय कराने वाले ये शब्द इस सूक्त में हैं- जातदेवः परमेष्ठिन्, तनूवशिन्, नृचक्षः, वन्दितः, इतः, देवः, अग्नि। इसमें परमेष्ठी पद का खुलासा करते हैं, 'परम पद में ठहरने वाला अर्थात् समाधि की अन्तिम अवस्था को जो प्राप्त हैं, आत्मानुभव जिसने प्राप्त किया है, तुर्य-चतुर्थ अवस्था का अनुभव करने वाला। इस प्रकार यहाँ अग्नि के गुण धर्म बताये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यहाँ अग्नि से तात्पर्य धर्मोपदेशक पंडित है। आचार्य सांकलेश्वर ने परमेष्ठी पद को 'परम श्रेष्ठ स्थान में रहने वाला अग्नि' बताया है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जो परम-पद में स्थित है, उसे परमेष्ठी कहा है। जो परम पद में स्थित होता है, स्वाभाविक है वह पूज्य, आदरणीय, वंदनीय होता ही है। चतुर्थ कांड में परमेष्ठी पद को प्रजापति अर्थ में समाहित करते हुए कथन है कि इन्द्र ही अग्नि, परमेष्ठी, प्रजापति और विराट् है। वह सब मनुष्यों और प्राणियों में व्यास है, वही सर्वज्ञ है और वही सबको बल देता है। सायणाचार्य इसका विश्लेषण करते हैं कि 'परमेष्ठी परमे सत्यलोके स्थितः प्रजापतिः विराट", अर्थात् जो परम सत्य लोक में स्थित प्रजापति विराट् है, वही परमेष्ठी है। आचार्य सातवलेकर का कथन है कि 'प्रभु ही अपने रूप से अग्नि बना है। परमेष्ठी (परमात्मा) प्रजापति (प्रजा का पालन करने वाला) ईश्वर है। सब विश्व को उठाने के कारण विराट् हुआ है। वही सब नरों में व्यापता है। वही आग्न आदि में फैला है। वही रथ खींचने वाले प्राणियों में फैला है। वही दृढ़ करता है और वही धारण करता है। __ आचार्य सांकलेश्वर ने प्रजापति और परमेष्ठी से धारण करने वाला इन्द्र स्वीकार किया है।' 1. अथर्व. सात. भाष्ट. 1.7. 2. 2. वही 3. अथर्ववेद संहिता विधि भाषा भाष्य 1.7. 2. 4. अथर्व. 4. 11.7. 5. अथर्व. सायण, भाष्य. 4. 11.7. 6. अथर्व, सातवले, भा. 4. 11.7. 7. अथर्व. वि. भाषा. भा. 4.11.7.