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कातन्त्रव्याकरणम्
'अर्थवत् ' का पाठ होने से वृक्षशब्दगत 'व्-ऋ - क् ष्' में से किसी भी वर्ण की स्वतन्त्ररूप में लिङ्गसंज्ञा प्रवृत्त नहीं होती है ।
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'अर्थ' शब्द की व्याख्या करते हुए व्याख्याकारों ने चार अर्थ बताए हैंअभिधेय, निवृत्ति, प्रयोजन तथा धन । तथापि यहाँ अभिधेयपरक ही अर्थ शब्द का पाठ किया गया है, क्योंकि अभिधेय में निवृत्ति आदि अर्थों का भी अन्तर्भाव हो जाता है । अर्थ के साथ शब्द का औत्पत्तिक संबन्ध है । शब्द को 'जाति - द्रव्य गुण-क्रिया' के भेद से चार प्रकार का स्वीकार किया गया है
व्याख्याकारों ने ‘जातिरेव शब्दार्थः, द्रव्यमेव शब्दार्थः, उभयमेव शब्दार्थः ' इन तीन पक्षों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है । वर्णों की अर्थवत्ता आदि पर भी विचार किया गया है
टीकाकार दुर्गसिंह ने शब्द के चार भेदों को 'जाति - द्रव्य-गुण-क्रिया' के क्रम से प्रस्तुत किया है, परन्तु उदाहरण 'जाति -क्रिया-गुण-द्रव्य' के क्रम से दिए हैं। इस व्यतिक्रम का समाधान करते हुए कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण ने कहा है कि आचार्य दण्डी जाति-क्रिया-गुण-द्रव्य के ही क्रम को स्वाभाविक मानते हैं, उन्हीं के अनुसार दुर्गसिंह ने भी उदाहरणों का क्रम रखा है -
जाति-क्रिया-गुण-द्रव्यैः स्वभावाख्यानमीदृशम् ।
दण्डिनो मतमाश्रित्य दुर्गेणापीत्युदाहृतम् ।।
कलापचन्द्रकार ने प्रसङ्गतः हेमकर- गोपीनाथ आदि आचार्यों के भी मतों का उल्लेख किया है ||८०|
८१. तस्मात् परा विभक्तयः [ २/१/२]
[ सूत्रार्थ ]
लिङ्गसंज्ञक शब्द से पर में 'सि-औ- जस्' आदि विभक्तियाँ होती है ।। ८१ । [दु० बृ० ]
सि, औ, जस् । अम्, औ, शस् । टा, भ्याम्, भिस् । ङे, भ्याम्, भ्यस् । ङसि, भ्याम्, भ्यस् । ङस्, ओस्, आम् । ङि, ओस्, सुप् । तस्माल्लिङ्गात् पराः स्यादयो