Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बन्धगो ६ वड्डिदंसणादो ति परूवेदुमुत्तरसुत्तं भणइ
8 तेण परं सव्वाणि फयाणि प्रोकडिजति। ... ६ ११. तेग परं ततो उपरि सनागि चे फद्दयाणि उकस्सफद्दयपजंताणि ओकडिजंति,तत्थ तप्पवुत्तीए पडिसेहाभावादो। . ... ६ १२. संपहि जहण्णणिखेवादिपदाणं पमाणविसयणिण्णयजणणट्ठमप्पाबहुअं परूवेमाणो इदमाह- ..
* एत्य अप्पाबहुभं ।
६ १३. जहण्णुकस्साइच्छावणा-णिक्खेवादीणमोकड्डणासंबंधीणमण्णेसिं च तदुवजोगीणं पदविसेसाणमेत्युइसे थोवबहुत्तं वत्तइस्सामो ति पातणिकासुत्तमेदं ।
इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं____ * उससे आगे सबं स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं। ..
६ ११. - 'तेण परं' अर्थात् उस विवक्षित स्पर्धकसे आगेके उत्कृष्ट स्पर्धक तकके सभी स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं, क्योंकि उनकी अपकर्षणरूपसे प्रवृत्ति होनेमें कोई निषेध नहीं है। ...: विशेषार्थ-अनुभागकी दृष्टिसे अपकर्षणका क्या क्रम है इसका. विचार यहाँ पर किया गया है। इस सम्बन्धमें यहाँ पर जो निर्देश किया है उसका भाव यह हैं कि प्रथम जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक तो जघन्य निक्षेपरूप होते हैं अतएव उनका अपकर्षण नहीं होता। उसके आगे अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूप होते हैं, अतपय उनका भी अपकर्षण नहीं होता। उसके आगे उत्कृष्ट स्पर्धकपर्यन्त जितने स्पर्धक होते हैं उन सबका अपकर्षण हो सकता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अतिस्थापनाके ऊपर प्रथम स्पर्धकका छापकर्षण होकर उसका निक्षेप अतिस्थापनाके नीचे जिन स्पर्धकोंमें होता है उनका परिमाण अल्प होता है, अतएव उनकी जघन्य निक्षेप संज्ञा है। उसके आगे निक्षेप एक-एक स्पर्धक बढ़ने लगता है। परन्तु अतिस्थापना पूर्ववत् बनी रहती है। किन्तु जिस स्पर्धकका अपकर्षण विवक्षित हो उसके पूर्व अनन्त स्पर्धक प्रतिस्थापनारूप होते हैं और प्रतिस्थापनासे नीचे सब स्पर्धक निक्षेपरूप होते हैं। उदाहरणार्थ एक कर्ममें कुल स्पर्धक १६ हैं। उनमेंसे यदि प्रारम्भके ४ स्पर्धक जवन्य निक्षेप हैं और ५ से लेकर १० तक छह स्पर्धक अतिस्थापनारूप हैं तो ११ वें स्पर्धकका छापकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ४ तक के चार स्पर्धकोंमें होगा। १२ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ५ तकके ५ स्पर्धकोंमें होगा । १३ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ६ तकके ६ स्पर्धकोंमें होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक स्पर्धकके प्रति निक्षेप भी एक-एक बढ़ता हुआ १६ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से लेकर ह तकके ६ स्पर्धकोंमें होगा। स्पष्ट है कि प्रतिस्थापना सर्वत्र परिमाणमें तदवस्थ रहती है, किन्तु निक्षेप उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जाता है। यह अंकसंदृष्टि है । इसी प्रकार अर्थसंदृष्टि समझ लेनी चाहिए।
६ १२, अब जवन्य निक्षेप आदि पदोंके प्रमाणविषयक निर्णयको उत्पन्न करनेके लिए अल्पबहुत्वका कथन करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* यहाँ पर. अल्पबहुत्व । : ..
६ १३. प्रकृतमें अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट अंतिस्थापना तथा निक्षेप आदिके तथा उसमें उपयोगी पड़नेवाले पदविशेषोंके अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह पातनिकासूत्रहै।