Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बन्धगो ६ मुत्तरपयडिविसयं चेव, मूलपयडीए तदसंभवादो। एवमोकड्डणादिवसेणाणुभागसंकमसंभवं' परूविय तत्थोकड्डणाविहाणपरूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो
* ओकडणाए पख्वणा।
६५. ओकड्डुक्कड्डणा-परपयडिसंकमलक्खणेसु तिसु संकमपयारेसु ओकड्डणाए ताव पवुत्तिविसेसजाणावण?मेसा परूवणा कीरइ त्ति पइण्णावयणमेदं ।
* पढमफयं ण मोकडिजदि । ६६. कुदो ? तत्थाइच्छावणा-णिक्खेवाणमदंसणादो। * विदियफद्दयं णमोक्कडिजदि।
. ६७. तत्थ वि अंइच्छावणा-णिक्खेवाभावस्स समाणसादो। ण केवलं पढम-विदियफद्दयाणमेस कमो, किंतु अण्णेसि अणंताणं फयाणं जहण्णाइच्छावणामेत्ताणमेसो चेव कमो त्ति जाणावणमुत्तरसुतं
8 एवमणंताणि फहयाणि जहरिण या अइच्छावणा, तत्तियाणि फयाणि ण प्रोकड्डिजति ।
६ ८. एवं तदिय-चउत्थ-पंचमादिकमेण गंतूणाणताणि फद्दयाणि णोकड्डिजति । केत्तियाणि च ताणि ? जेत्तिया जहण्याइच्छावणा तेत्तियाणि। एतो उपरिमाणं वि आदिके वशसे अनुभागसंक्रमकी प्राप्ति सम्भव है इसका कथन करके उनमें से अपकर्षणका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अपकर्षणकी प्ररूपणा ।
६५. अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमरूप संक्रमके तीन भेदोंमेंसे अपकर्षणकी प्रवृत्ति विशेषका ज्ञान करानेके लिए यह प्ररूपणा की जा रही है इस प्रकार यह प्रतिज्ञावचन है ।
* प्रथम स्पर्धक अपकर्पित नहीं होता। ६६. क्योंकि वहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेप नहीं देखे जाते।
* द्वितीय स्पर्धक अपकर्षित नहीं होता।
६७. क्योंकि वहाँ पर भी प्रतिस्थापना और निक्षेपका अभाव पहलेके समान पाया जाता है। केवल प्रथम और द्वितीय स्पर्धकोंका ही यह क्रम नहीं है, किन्तु जघन्य अतिस्थापनारूप अन्य अनन्त स्पर्धकोंका भी यही क्रम है इस प्रकार इस बातके जताने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
___* इस प्रकार अनन्त स्पर्धक जो कि जघन्य अतिस्थापनारूप हैं उतने स्पधक अपकर्षित नहीं होते।
६८. इस प्रकार तीसरा, चौथा और पाँचवाँ आदिके क्रमसे जाकर स्थित हुए अनन्त स्पर्धक अपकर्षित नहीं किये जा सकते।
शंका-वे कितने हैं ? १. ता. प्रतौ संकम [संकम] संभवं इति पाठः ।