Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
अणुभागसंकमसरूवणिद्देसो
३
६२. संपहि अणुभाग संकम सरूवजाणावणट्ठमट्ठपदं वुच्चदे, तेण विणा परूवणाए कीरमाणाए सिस्साणं पडिवत्तिगउरवप्पसंगादो ।
* तत्थ अट्ठपदं ।
६३. तत्थाणंतरणिद्दि मूलुत्तरपयडिसंबंध मेयभिण्णे अणुभागसंकमे विहासणिज्जे पुत्रं गमणीयमद्रुपद, अण्गहा भावविसयणिण्गयाणुप्पत्ती दो ति भणिदं होइ ।
* अणुभागो प्रोकडिदो वि संकमो, उक्कडिदो बि संकमो, अरणपयडिं णीदो वि संकमो ।
९४. एदाणि तिष्णि अट्ठपदाणि', एदेहि तस्स सरूवपडिवती । तं जहा - saisatara अणुभागो संक्रमववएस लहद्रे, अहियरसस्स कम्मक्खंधस्स तत्थ हीणरसत्तेग विपरिणामदंसणादो | अवत्थादो अवत्थंतरसंकंती संकमो ति । एवमुकडिदो अण्गपर्याडि दो विकम, तत्थ पुण्यावस्थापरिच्चाणुत्तरावत्थावत्तिदंसणादो । एत्थोकडकड्डणालक्खणमट्ठपदं मूलुत्तर पयडीणमणुभाग संकमस्स साहारणभावेण णिहिदूं, उहयस्थ वि तदुभयपत्तीए पडिसेहाभावादो । अण्गपयडिं णीदो वि अणुभागो संकमो ति एवं तइअमट्ठपद
8 २. अब अनुभागसंक्रमके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए अर्थपद कहते हैं, क्योंकि उसके बिना प्ररूपणा करने पर शिष्योंको समझने में कठिनाई जा सकती है ।
* उसके विषयमें अर्थपद ।
६३. 'तत्र' अर्थात् पहले जो मूलप्रकृति और उत्तरप्रतिके भेदसे दो प्रकारका अनुभाग संक्रम कह ये हैं उसका विशेष व्याख्यान करते समय पहले अर्थपद जानने योग्य है, अन्यथा अनुभागसंक्रमविषयक निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है ।
* अपकर्षित हुआ अनुभाग भी संक्रम है, उत्कर्षित हुआ अनुभाग भी संक्रम है। और अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है ।
९४. ये तीनों अर्थपद हैं, क्योंकि इनके द्वारा उस ( अनुभाग संक्रम ) के स्वरूपका ज्ञान होता है । यथा - अपकर्षणको प्राप्त हुआ अनुभाग संक्रम संज्ञाको प्राप्त होता है, क्योंकि अधिक रसवाले कर्मस्कन्धका अपकर्षण होने पर हीन रसरूपसे विशेष परिणमन देखा जाता है। एक अवस्थासे दूसरी अवथारूप संक्रान्त होना संक्रम है । यह अर्थ यहाँपर घटित हो जाता है, इसलिए इसे संक्रम कहा है। इसी प्रकार उत्कर्षणको प्राप्त हुआ और अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में भी पूर्व अवस्थाके त्याग द्वारा उत्तर
स्थाकी प्राप्ति देखी जाती है। यहाँ पर अपकर्षण - उत्कर्षणलक्षण अर्थपद मूलप्रकृतिअनुभागक्रम और उत्तर प्रकृतिअनुभागसंक्रम इन दोनोंको विषय करता है, इसलिए इसका इन दोनों के साधारण रूपसे निर्देश किया है, क्योंकि इसकी इन दोनोंमें प्रवृत्ति होनेमें कोई बाधा नहीं आती । किन्तु 'अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है' यह तीसरा अर्थपद उत्तरप्रकृति अनुभागसंक्रमको ही विषय करता है, क्योंकि मूलप्रकृतिमें उसकी प्राप्ति असम्भव है । इस प्रकार अपकर्षण
१. श्र०प्रतौ तिरिण वि श्रपदाणि इति पाठः ।