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नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा मन है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को अपने से अत्यन्त दूर कर दिया है, इसी कारण से सत्य पुरुष हमको ऋषभ काइते
प्रजापतेः सुतो नाभिः, तस्यापिसुतमुच्यते । नाभिनो ऋषभपुत्रो वै, सिद्धकर्मदृढव्रतः।। तस्यापि मणिचरो यक्षः, सिद्धो हैमवते गिरौ।
ऋषभस्य भरतः पुत्र.........' सारांश-प्रजापति के पुत्र नाभि हुए। उनके पुत्र ऋषभ, जो कृतकृत्य और दृढव्रती थे। मणिधर उनका यक्ष था। हिमवान् (हिमालय) पर्वत पर वे सिद्ध हुए। उनके पुत्र का नाम भरत था।
अग्नीध्रसूनोनभिस्तु, ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताद् बरः॥ हिमाई दक्षिणं वर्ष, भरताय पिता ददौ।
तस्मात्तु भारत वर्ष, तस्य नाम्ना महात्मनः॥ तात्पर्य-नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव हुए और ऋपभदेव के सुपुत्र भरत, अपने शतं (सौं) भ्राताओं में सबसे श्रेष्ठ (ज्येष्ठ) थे। ऋषभदेव ने हिमालय के दक्षिण का क्षेत्र भरत के लिए दिया और इस कारण उस महात्मा के नाम से इस क्षेत्र का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।
नाभेः पुत्रश्च ऋषमः ऋषभादू भरतोऽभवत् । ___ तस्य नाम्ना स्विदं वर्ष, भारतं चेति कीर्त्यते॥"
श्री नाभिराज के सुपुत्र ऋषभदेव हुए और ऋषभदेव के पुत्र भरत हुए। इस क्षेत्र के शासक होने से भरत के नाम से इस क्षेत्र का नाम 'भारतवर्ष' यह प्रसिद्ध हुआ।
"ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋषभदेव के समान श्रेष्ठ आत्मा बनने की स्तुति रुद्रदेव से की गयी है (ऋग्वेद 101/21/66)। डॉ. सर राधाकृष्णन् ने अपने गम्भीर अध्ययन के द्वारा यह सिद्ध किया है कि जैनधर्म के संस्थापक ऋषभदेव ही हैं। इस विषय में उन्होंने यजुर्वेद में कुछ मन्त्र भी खोज निकाले हैं।
जर्मनी के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. जैकोबी ने ऋषभदेव को ऐतिहासिक सिद्ध
1. आर्यमंजुश्री पूलश्लोक-390/92. 2. मार्कण्डेय पुराण-अ. 50, पृ. 150. 3. विष्णुपुराण-हितीयांश अ.-1, श्लोक = 57. 4. डॉ. सर राधाकृष्णन् : इण्डियन फिलासफी, जिल्द-1, पृ. 287
36 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन