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नृपा मूर्धाभिषिक्ता ये, नाभिराजपुरस्सराः ।
राजसजसिंहाध्यमामध्यन ः साम् सब राजाओं में श्रेष्ठ यह ऋषभदेव वास्तव में राजपद के योग्य हैं, ऐसा मानकर नाभिराज आदि राजाओं ने उनका एक साथ अभिषेक किया। तपकल्याणक के उत्सव के समय
मरुदेव्या समं नाभिराजो राजशतैर्वृतः ।
अनूत्तस्थौ तदा द्रष्टुं विभोर्निष्क्रमणोन्सवम्॥ उस समय महाराज नाभिराज भी भरुदेवी तथा सहस्रों नृपों से परिवृत होकर प्रभु ऋषभदेव के तप कल्याणक का उत्सव देखने के लिए पालकी में स्थित ऋषभदेव के पीछे जा रहे थे।
उस समय का दृश्य बड़ा विचित्र था। एक ही समय में विविध रसों का परिपाक हो रहा था। यथा
ऊर्य नबरसा जाता नृत्यदप्सरसा स्फुटाः ।
नाभयेन बिभुक्तानामधः शोकरसोऽभवत्।।' तात्पर्य-ऊपर आकाश में लो अप्सराओं के नृत्य से नवरस प्रकट हो रहे थे और नीचे पृथिवी पर तीर्थंकर ऋषभदेव के वियोग से मानव शोकरस से अभिभूत हो रहे थे। ऋषभदेव की दीक्षा का वर्णन
आपृच्छणं ततः कृत्वा, पित्रोंबन्धुजनस्य च।
'नमः सिद्धेभ्य' इत्युक्त्या, श्रापण्यं प्रत्यपद्यत।' तात्पर्य-आचार्य रविषेण के अनुसार ऋषभदेव ने वन में पहुंचकर माता-पिता और बन्धुजनों से आज्ञा लेकर णमो सिद्धाण' यह मन्त्र कहकर पंचमुष्टि केशलोंच करते हुए श्रमण दिगम्बर दीक्षा को ग्रहण किया।
1. जिनसेनाचार्य : आदिपुराण : सं. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्र. · भा. ज्ञानपीठ, इहली. सन
1977. पर्व 16, पृ. 366. 2. तथैव, पर्व 17, पृ. AKK. 1. जिनसेनाचाई . हरियंशपुराण : सं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ, दहलो : _____140s, पर्च 9, श्तांक 11. 4. रनिपणावा : पद्मपराग : सं. पन्नालाल साहित्यान्दायं. प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, पर्व,
श्लोक 2.
34 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन