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सायणभाष्य तथा निरुक्त को दृष्टिपथ में रखकर भारतीय दार्शनिक परम्परानुसार निम्नप्रकार किया गया है-
मुद्गल ऋषि के सारथी ( विद्वान् नेता ) केशी वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौवें (इन्द्रियाँ) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर ) के साथ दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी ( मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ीं ।
तात्पर्य यह कि मुद्गलऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुखी थीं वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गयीं ।
इस प्रकार केशी और ऋषभ या वृषभ के एकत्व का पूर्णतः समर्थन स्वयं ऋग्वेद से हो जाता है। इसी क्रम में
"त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्यां आ विवेश" ।
का अर्थ निम्न प्रकार से विचारणीय है कि - त्रिधा (ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से) अनुबद्ध ऋषभ ने धर्म घोषणा की और वे एक महान् देव के रूप में भक्तियों में प्रविष्ट हुए ।
इसी श्रृंखला में ऋग्वेद के शिश्नदेवों (नग्नदेवों) वाले उल्लेख भी ध्यातव्य हैं ।"
प्राचीन साहित्य तथा अभिलेखों के उल्लेख
समस्त प्राचीन वाङ्मय, वैदिक, बौद्ध व जैन ग्रन्थों तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण- दोनों सम्प्रदायों के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। जैन और बौद्ध साधु आज भी 'श्रमण' कहलाते हैं। *
1. देखिए, ऋग्वेद, 4/5/3
2. देखिए, ऋग्वेद 7/21/ 5 तथा ऋग्वेद 10/99/3
3. विस्तार के लिए देखिए
(अ) भागवतपुराण, 5/4/5 5/5/19
(ब) आर्यमंजुश्री, मूलश्लोक 390 / 92
(स) आदिपुराण, 16/ 224 तथा 17/178.
(द) हरिवंशपुराण, 921
(ड) पद्मपुराण, 3/282
4. देखिए - (अ) अशोक का गिरनार अभिलेख क्र. १
( प्राकृत अपभ्रंशसंग्रह, पृ. 102 पर संगृहीत )
काशीप्रसाद जायसवात कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख का विवरण प्र. नागरी
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प्रचारिणी सभा पत्रिका, भाग 8, अंक 3.
(घ) भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 17
32 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन