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"मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला । वातल्यानुधाजियन्ति यद्देवासो अविक्षत। उन्मदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम् ।
शरीरेदस्माकं यूयं मासो अभिपश्यध।।' मनीषियों ने वेदों का अर्थ बैठाने के लिए बहुविध प्रयत्न किये हैं किन्तु अब तक निःसन्देह रूप से अर्थ बैशना सम्भव नहीं हो सका है, तथापि सायण-भाष्य की सहायता से, पुराविद्याओं के मूर्धन्य मनीषी डॉ. हीरालाल जी ने उक्त ऋचाओं का अर्थ निम्न प्रकार से किया है
__ "अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उत्कृष्ट आनन्द सहित वायुभाव को (अशरीरी ध्यानवृत्ति) को प्राप्त होते हैं और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप को नहीं" | ऐसा वे यातरशना मुनि प्रकट करते हैं। ऋग्वेद में उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की भी स्तुति की गयी है
"केश्यग्नि केशी विष केशी बिभर्ति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते" "केशी, अग्नि, जल स्वर्ग और पृथिवी को धारण करता है । केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है।
केशी की यह स्तुति उक्त वातरशना मुनियों के वर्णन आदि में की गयी हैं, जिससे प्रतीत होता है कि केशी, वातरशना मुनियों के वर्णन में प्रधान थे।
__ ऋग्वेद के इन केशी व वातरशना मुनियों की साधनाओं का भागवतपुराण में धर्णित वातरशना श्रमण ऋषि, उनके अधिनायक ऋषभदेव और उनकी साधना तुलना करने योग्य है। ऋग्वेद के 'वातरशना मुनि' और भागवत के 'वातरशनाश्रमण ऋषि' एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं। वस्तुतः केशी का अर्थ केशधारी है। केशी स्पष्ट रूप से वातरशना मुनियों के प्रधान ही हो सकते हैं, जिनकी साधना में मलधारणा,
I. ऋग्वेदः सं. नारायण शर्मा, सोनटक्के तथा सी.जी. काशीकर : प्र.-मैटिक संशोधनमण्डल पूना :
1946 ई. 10/136/2-9. 2. रो. हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान : प्र. मध्यप्रदेश शासन साहित्य
परिषद भोपाल, 1975 ई., पृ. 13-14. 3 ऋग्वेद, 10/136/1.
10 :: जैन पूजा-काद : एक चिन्तन