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हे शुद्ध दीप्तिमान सर्वज्ञ वृषभ! हमारे ऊपर ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हो।
"अनिवागं वृषभं मन्द जिह्वग्रहस्पतिं वर्धया नव्यमर्के] सारांश -मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य ऋषभ की पूजा साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो। चे स्तोता को नहीं छोड़ते।
अहो मुंचं वृषभयाशिमानं विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् ।
अपां न पातमश्विना हुवेधिप इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः।। सासंश-सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक व्रतियों में प्रथम राजा, आदित्यस्वरूप श्री ऋषभदेव का मैं आह्वान करता हूँ। वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें। · महर्षि :देव रामान' if ants. एयं मरुदेवी का वर्णन
विदितानरागमापौरप्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य सह मतदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन
महिमानवाप। गद्यसार : पुरवासियों और प्रकृति (मन्त्री आदि) को अभिव्याप्त करनेवाला जिनका प्रेम प्रसिद्ध है और नगरवासियों को जो प्रमाणित व्यक्ति थे, ऐसे महाराज नाभिराज, धर्ममर्यादा की सुरक्षा के लिए अपने पुत्र ऋषभदेव का राज्याभिषेक करके वदरिकाश्रम में प्रसन्नचित्त से घोर तप करते हुए यथासमय जीवन्मुक्त हो गये।
धर्म ब्रवीषि धर्मज्ञ, धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधमकृतः स्थान, सूचकस्यापि तद्भवत।' सारांश-हे धर्मज्ञ ऋषभदेव! आप धर्म का उपदेश करते हैं। आप निश्चय से वृषभरूप से स्वयं धर्म हैं। अधर्म करनेवाले को जो नरकादि स्थान प्राप्त होते हैं, वे ही स्थान आप के निन्दक को प्राप्त होते हैं।
इदं शरीरं मन दुर्विभाव्यं, सत्त्वं हि में हृदयं वत्र धमः ।
पृष्ठे वृतो में धर्म आरात्, अतो हि मामृषभं प्राहुरायाः।।" सारांश-रे इस अवतार शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिए बुद्धिगम्य
1. ऋग्वेद मण्डत-1. सक्त !, मन्त्र-10 2. अयोट - 1142:1. 1. भागवतपुराण- न. 7::. 4. भागवत्त--IITRA. 5. भागवत्--55:19.
जैन पूना-काध्य का
भय और विकास :: :