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पर श्री भगवान विष्णु, महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ से बातरशना (दिगम्बर) श्रमणऋषियों और ऊधरता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए शुद्ध सत्वमय विग्रह से ऋषभदेव प्रकट हुए।"
इस अवतार का जो हेतु भागवतपुराण में बताया गया है उससे जैनधर्म की परम्परा, भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से निःसन्देह रूप से जुड़ जाती है। ऋषभावतार का एक हेतु बातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना निरूपित किया गया है। भागवतपुराण में, यह प्रसंग विशेषतः निदर्शनीय है कि-'अयमवतासे रजसोपप्लुत-कैवल्योपशिक्षणार्थ ।
"ऋषभदेव का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए मानवों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ था। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी सम्भव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण (मलधारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था।"
कारण कि जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, पलपरीह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। महात्मा बुद्ध के समय में भी रजोजाणिक अभय विधमान थे। बुद्ध भगवान ने श्रमणों की आचार-प्रणाली में व्यवस्था लाते हुए कहा है
"नाहं भिक्खये संघाटिकस्स संघाटिधारणमत्तेन सापण्णं कहामि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्स रजोजल्लिकपतेन
जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामग्ण बदामि" । "हे भिक्षुओ! संघाटिक के संघाटीधारण मात्र से श्रामण्य नहीं कहलाता, अचेलक के अचेलकत्व मात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिकत्व मात्र से और जटिलक के जटाधारणमात्र से भी श्रामण्य नहीं कहलाता।"
उपर्युक्त उल्लेखों के प्रकाश में यह तथ्य विचारणीय है कि जिन वातरशना के धर्मों की स्थापना करने तथा रजोजल्लिकवृत्ति द्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखलाने के लिए भगवान ऋषभदेव का अवतार हुआ था, वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं। इसके समाधान के लिए भारतीय वाङ्मय के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों का अनुशीलन आवश्यक है। इन वेदों में वातरशना मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में प्राप्त होता है।
वातरशना मुनियों से सम्बन्धित ऋग्वेद की ऋचाओं में उन मुनियों की साधनाएँ विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। यथा
1. देखिए--भागवतपुराण, 302 ५. परिझमनिकाय, पृ. 4th.
जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास :: 29