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जंजाल है। यह जंजाल नहीं है। अपने चेहरे को बदलो! यह दर्पण है। और तब तुम परमात्मा को पत्नी के लिए भी धन्यवाद दोगे कि अच्छा किया।
__मैंने सुना है, सुकरात के पास बड़ी खतरनाक पत्नी थी। जिनथिप्पे' उसका नाम था। ऐसी दुष्ट पत्नी कम ही लोगों को मिलती है। ऐसे तो अच्छी पत्नी मिलना मश्किल है. मगर वह खराब में भी खराब थी। वह उसे चौबीस घंटे सताती। एक बार तो उसने चाय का उबलता पानी उसके सिर से ढाल दिया। उसका आधा चेहरा सदा के लिए जल गया और काला हो गया। लेकिन सुकरात भागा नहीं, जमा रहा! एक युवक उससे पूछने आया कि मैं विवाह करना चाहता हूं आपकी क्या सलाह है सोचा था युवक ने कि सुकरात तो निश्चित कहेगा, भूल कर मत करना। इतनी पीड़ा पाया है, सारा एथेन्स जानता था! घर-घर में यह चर्चा होती थी कि आज' जिनथिप्पे' ने सुकरात को किस तरह सताया। यह तो कम से कम कहेगा कि विवाह मत करना। वह युवक विवाह नहीं करना चाहता था। लेकिन सुकरात का सहारा चाहता था ताकि कह सके मा-बाप को कि सुकरात ने भी कह दिया है। लेकिन चौंका युवक, क्योंकि सुकरात ने कहा: विवाह तो करना ही! अगर मेरी पत्नी जैसी मिली तो सुकरात हो जाओगे। अगर अच्छी पत्नी मिल गयी, सौभाग्य! हानि तो है ही नहीं! इसी पत्नी की कृपा से मैं शांत हुआ। इसकी मौजूदगी प्रतिपल परीक्षा है, पल-पल कसौटी है। अनुगृहीत हूं इसका। इसी ने मुझे बदला। इसी में अपने चेहरे को देख-देख कर मैंने धीरे-धीरे रूपांतरण किये। मन में तो मेरे भी बहुत बार उठा कि भाग जाऊं। सरल तो वही था। भगोडेपन से ज्यादा सरल और क्या है! जहां जीवन में कठिनाई हो, भाग खड़े होओ! इससे सरल क्या है?
तुम जिसको संन्यास कहते रहे हो अब तक, उससे सरल और क्या है? सब तरह के अपाहिज, सब तरह के कमजोर, दीन-हीन, बुद्धिहीन, अपंग, कुरूप-सब भाग जाते हैं। बुद्ध को तो एक नियम बनाना पड़ा था कि जिसका दिवाला निकल जाये वह भिक्षु न हो सकेगा। क्योंकि जिसका भी दिवाला निकलता है, वही भिक्षु होने लगता है। जिसकी पत्नी मर जाए, वह कम से कम साल भर रुके, फिर संन्यास ले। क्योंकि जिसकी पत्नी मरी, वही संन्यासी होने को तैयार हो जाता है! जहां जीवन में जरा-सा धक्का लगा कि बस, उखड़ गये। जड़ें भी हैं तुम्हारी या नहीं? बिना जड़ के जी रहे हो? जरा-जरा से हवा के झोंके तुम्हें उखाड़ जाते हैं। ये तूफान, ये आंधिया, ये जीवन की कठिनाइया-ये सब मौके हैं, अवसर हैं, जिनमें व्यक्ति पकता है।
यह तो ऐसा ही हुआ जैसे एक कुम्हार ने एक घड़ा बनाया और वह मिट्टी के बने घड़े को आग में डाल रहा था और घड़ा चिल्लाने लगा'मुझे आग में मत डालो। मुझे आग में क्यों डालते हो?' घड़े को पता ही नहीं कि आग में पड़ कर ही पकेगा। यह कच्चा घडा किसी काम का नहीं है। यह अगर कुम्हार ने इस पर दया की तो वह दया न होगी, वह बड़ी कठोरता हो जाएगी। रोने दो, घड़े को, कुम्हार तो इसे आग में डालेगा ही। क्योंकि घड़े को खुद ही पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है। आग में कभी गया नहीं, पता हो भी कैसे सकता है?
तुम्हारे महात्मा कहेंगे, मत डालो घड़े को आग में। लेकिन परमात्मा कहता है, आग में बिना