Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय परिच्छेद
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पागमा लिगिनो देवाः, धर्माः सर्वे सदासमाः । इत्येषा कथ्यते बुद्धिः, पुंसो वैनयिको जिनैः ॥८॥
अर्थ-सर्व आगम, अर सर्वभेषी, अर सर्व देव, अर सर्व धर्म सदा समान हैं ऐसी यहु पुरुषकी बुद्धि, जिनदेवनिकरी विनयमिथ्यादृष्टि कहिए है ॥८॥
पूर्णः कुहेतुरष्टांतैर्न तत्वं प्रतिपद्यते ।
मंडलश्चर्मकारस्य, भोज्यं चर्म लरिव ॥६ अर्थ-खोटे हेतु दृष्टांतनि करि भरिया पुरुष तत्वकौं प्राप्त न होय है जैसे चमके टूकडानि करि पूर्ण चमारका कुत्ता भोजनकौं प्राप्त न होय है।
भार्ग-जैसें चमारका कुत्ता चर्मके टूकडे खाय है ताकौं भोजन न रुचे तैसें खोटे हेतु दृष्टान्तनि करि सहित मिथ्यादृष्टी तत्वकौं न पावै है सो गृहीत मिथ्यादृष्टी है ॥६॥
अतथ्यं मन्यते तथ्यं, विपरीतरुचिर्जनः । दोषातुरमनास्तिक्तं, ज्वरोव मधुरं रसम् ॥१०॥
मर्ग-जैसे वातपित्तादि दोषनि करि आतुर जो ज्वरसहित पुरुष सो मिष्टरसको कटुक मान है तैसें विपरीत है रुचि जाकें ऐसा जीव सत्यार्थको असत्यार्थ मान है, यह विपरीत मिथ्यादृष्टि जानना ॥१०॥
दीनो निसर्गमिथ्यात्वात्तत्वातत्वं न बुध्यते । सुन्दरासुन्दरं रूपं, जात्यंध इव सर्वथा ॥११॥
प्र-जैसें जनमका अन्धा पुरुष सर्वथा सुन्दर या असुन्दर रूपकौं न जान है तैसें दीन एकेन्द्रियादि अज्ञानी जीव स्वभावजनित मिथ्यात्वतें तत्व कौं न जाने हैं, ऐसा निसर्ग मिथ्यात्वका स्वरूप कहा ॥११॥
देवो रागी यतिः संगी, धर्मः प्राणिनिशुम्भनम् । मूढष्टिरिति ते, युक्तायुक्ताविवेचकः ॥१२॥