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परिस्थिति में ही चला जाता है । अपवाद का मार्ग चमचमाती हुई तलवार की तीक्ष्ण धार के सदृश है। उस पर प्रत्येक साधक नहीं चल सकता । जिस साधक ने आचारांग आदि आगम साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है, छेदसूत्रों के गम्भीर रहस्यों को समझा है, उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग का जिसे स्पष्ट परिज्ञान है, वह गीतार्थ महान् साधक ही अपवाद को अपना सकता है। जिसे देश, काल और स्थिति का परिज्ञान नहीं है, ऐसा अगीतार्थ यदि अपवाद मार्ग को अपनाता है तो यह साधना से च्युत हो सकता है । कुशल व्यापारी आय और व्यय को सम्यक प्रकार से समझकर ही व्यापार करता है, वह अल्प व्यय कर अधिकाधिक लाभ उठाता है। वैसे ही गीतार्थ श्रमण परिस्थिति विशेष में दोष का सेवन करके भी अधिक सद्गुणों की वृद्धि करता है।
आचार्य भद्रबाहु' ने गीतार्थ के सद्गुणों का विवेचन करते हुए लिखा है-आय-व्यय, कारण-अकारण, प्रागाढ़ (ग्लान)-अनागाढ़, वस्तु-अवस्तु, युक्त-अयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्यक ज्ञान गीतार्थ को रहता है और वह कर्तव्य और कार्य का परिणाम भी जानता है ।
गीतार्थ पर जिम्मेदारी होती है कि वह अपवाद स्वयं सेवन करे या दूसरों को अपवाद सेवन की अनुमति दे। अगीतार्थं श्रमण अपवाद सेवन करने का स्वयं निर्णय नहीं ले सकता । गीतार्थ को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का परिज्ञान होता है, जिससे वह साधना के पथ पर बढ़ सकता है।
प्राचार्य संघदासगणि२ ने सुन्दर रूपक के द्वारा उत्सर्ग और अपवाद मार्ग को बताया है। एक यात्री अपने लक्ष्य की अोर द्रत गति से चल रहा है । वह कभी तेजी से कदम बढ़ाता है तो कभी जल्दी पहुँचने के लिए वह दौड़ता भी है। पर जब वह बहुत ही थक जाता है और आगे उसे विषम मार्ग दिखाई देता है, तब विश्रान्ति के लिए कुछ क्षणों तक बैठता है, क्योंकि बिना विश्राम किये एक कदम भी चलना उसके लिए कठिन है। लेकिन उस यात्री का विश्राम आगे बढ़ने के लिए है। उसकी विश्रान्ति, विश्रान्ति के लिए नहीं; अपितु प्रगति के लिए है।
साधक भी उसी तरह उत्सर्ग मार्ग पर चलता है। किन्तु कारणवशात् उसे अपवाद मार्ग का अवलम्बन लेना पड़ता है। वह अपवाद उत्सर्ग की रक्षा के लिए ही है, उसके ध्वंस के लिए नहीं है । कल्पना कीजिए-शरीर में एक' भयंकर जहरीला फोड़ा हो चुका है। शरीर की रक्षा के लिए उस फोड़े की शल्यचिकित्सा की जाती है। शरीर का जो छेदन-भेदन होता है वह शरीर के विनाश के लिए नहीं, अपितु शरीर की रक्षा के लिए है।
यदि साधक पूर्ण समर्थ है और विशिष्ट स्थिति उत्पन्न होने पर वह सहर्ष भाव से मृत्यु का वरण कर सकता हो तो वह समाधिपूर्वक वरण करे। यदि मृत्यु को वरण करने में समाधिभाव भंग होता है तो वह जीवन को बचाने हेतु संयम की रक्षा के लिए प्रयत्न करे।
प्रोघनिर्यक्ति की टीका में प्राचार्य द्रोण ने लिखा है--अपवाद सेवन करने वाले साधक के परिणाम पूर्ण विशुद्ध हैं और पूर्ण विशुद्ध परिणाम मोक्ष का कारण है, संसार का नहीं। साधक का शरीर संयम के लिए है।
१. आयं कारण गाढं वत्थु जुत्तं ससत्ति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं फलं च विधिवं वियाणाह ।।
-बृहत्कल्पनियुक्तिभाष्य ९५१ धावंतो उव्वाओ मग्गन्तू किं न गच्छइ कमेणं । किं वा मउई किरिया, न कीरए असहुओ तिक्खं ॥
-बृहत्कल्पभाष्य पीठिका, ३२० ३. न याविरई किं कारणं ? तस्याशयशुद्धतया विशुद्धपरिणामस्य च मोक्षहेतुत्वात् ।।
-ओपनियुक्ति टीका गा. ४६
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