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(२३) एक सौ चालीस दिन की (२४) एक सौ पैंतालीस दिन की (२५) उद्वातिकी आरोपणा (२६) अनुद्घातिकी श्रारोपणा (२७) कृत्स्ना श्रारोपणा ( २८ ) प्रकृत्स्ना आरोपणा ।
जिस तीर्थंकर के शासन में तीर्थंकर स्वयं उत्कृष्ट तप की जितनी आराधना करते हैं, उससे अधिक तप की आराधना उसके शासन में अन्य व्यक्ति नहीं कर पाते । प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने एक संवत्सर तक तप की आराधना की। उनके शासन में एक संवत्सर से अधिक तपस्या का विधान नहीं था। भगवान् अजितनाथ से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ के शासन तक आठ मास के तप की आराधना साधक कर सकता था। भगवान् महावीर ने उत्कृष्ट तप की आराधना छह मास की की थी, इसलिए उनके शासन में तपस्या का विधान छह मास का है, उससे अधिक नहीं इसलिए भ. महावीर के शासन में आरोपणा प्राप्त प्रायश्चित्त का विधान भी छह मासिक से अधिक नहीं है ।' छेद प्रायश्चित्त भी उत्कृष्ट छह मास का होता है । वह अधिक से अधिक तीन बार तक दिया जा सकता है । उसके पश्चात् मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है ।
दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प आदि छेदसूत्रों से निशीथ की रचना शैली पृथक् है । उन्नीस उद्देशकों तक प्रत्येक सूत्र साइज्जद से पूर्ण होता है और प्रायश्चित विधान के साथ उद्देशक पूर्ण होता है किन्तु बीसवें उद्देशक की रचनाशैली उन्नीस उद्देशकों से बिल्कुल अलग-थलग है। बीसवें उद्देशक में अनेक तथ्य दिये गये हैं। किन्तु सूत्र की शैली बहुत ही संक्षिप्त है। अतः सूत्र में रहे हुए गुरु गम्भीर रहस्य को बिना गुरुगम के या बिना व्याख्या साहित्य के समझना बहुत ही कठिन है । यही कारण है प्रस्तुत सूत्र पर अत्यधिक विस्तार से भाष्य चूर्णि आदि का निर्माण हुआ है। नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, सुबोध व्याख्या आदि में उत्सर्व और अपवाद मार्ग की विस्तार से चर्चा है।
साधना के दो मार्ग उत्सर्ग और अपवाद
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जैनसंस्कृति में साधना का गौरवपूर्ण स्थान है । प्राचीन जैन साहित्य के पृष्ठ साधना के उज्ज्वल समुज्ज्वल आलोक से जगमगा रहे हैं । साधना को जीवन का प्राण कहा है। सम्यक् साधना से ही साधक अपने साध्य को प्राप्त करता है। साधक के जीवन के कण-कण में त्याग, तप, स्वाध्याय और ध्यान की सरस सरिता बहती है।
उत्सर्ग और अपवाद मार्ग
जैन साधना रूपी सरिता के दो तट हैं—एक 'उत्सर्ग' है और दूसरा 'अपवाद' । उत्सर्ग शब्द का अर्थ 'मुख्य' और अपवाद शब्द का अर्थ 'गौण' है उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, शुद्धि और अभिवृद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान और धपवाद का अर्थ है आन्तरिक जीवन आदि की रक्षा
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सुबहुहि विमासेहि छन्हं मासाण परं च दायव्वं ।। ६५२४ चूर्णितवारिहेहि बहुहि मासेहि छम्मासा परं ण दिज्जइ सम्वस्सेव एस नियमो, एत्थ कारणं जम्हा भ्रम्हं वद्धमाणसामिणो एवं चैव परं पमाणं ठवितं । (ख) छम्मासोवरि जइ पुणो आवज्जइ तो तिणि वारा लहु चेव छेदो दायव्वो । एस प्रविसिट्ठी वा तिष्ण
वारा छलहु छेदो ।
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अहवाजं चैव तव तियं तं छेदतिय पि-मासम्मंतरं चउमासम्भंतरं छम्मा सम्भंतरं च जम्हा एवं तम्हा भिण्णमासादि जाव छम्मासं, तेसु छिण्णेसु छेय तियं प्रतिक्कतं भवति । ततो वि जति परं प्रावज्जति तो तिणि वारा मूलं दिज्जति । - निशीय चूर्णि भाग ४, ५, ३५१-५२.
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