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तिक (लघु चातुर्मास) प्रायश्चित्त का उल्लेख है । इन उद्देशकों का जो विभाजन किया गया है उसका आधार है मासिक उद्घातिक, मासिक अनुद्घातिका, चातुर्मासिक उद्घातिक, चातुर्मासिक अनुद्घातिक और प्रारोपणा, ये पांच विकल्प हैं । स्थानांगसूत्र के पांचवें स्थान में आचारकल्प के पांच प्रकार बताये हैं ।'
यदि हम गहराई से चिन्तन करें तो प्रायश्चित्त के दो ही प्रकार हैं-मासिक और चातुर्मासिक । शेष द्विमासिक, त्रिमासिक, पञ्चमासिक और छह मासिक, ये प्रायश्चित्त आरोपणा के द्वारा बनते हैं। बीसवें उद्देशक का प्रमुख विषय आरोपणा ही है। स्थानांगसूत्र के पांचवें स्थान में आरोपणा के पांच प्रकार बताये हैं। प्रारोपणा का अर्थ है एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के सेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना। उसके पांच प्रकार हैं
१. प्रस्थापिता-प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों में से किसी एक तप को प्रारम्भ करना।
२. स्थापिता-प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को स्थापित किये रखना, वैयावृत्य प्रादि किसी प्रयोजन से प्रारम्भ न कर पाना ।
३. कृत्स्ना -वर्तमान जैन शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप (प्रायश्चित्त रूप में) प्राप्त न हो उसकी आरोपणा को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण कृत्स्ना कहा जाता है।
४. अकृत्स्ना-जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो, उसकी आरोपणा अपनी अवधि से पूर्ण नहीं होती। प्रायश्चित्त के रूप में छह मास से अधिक तप नहीं किया जाता। उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इसलिए अपूर्ण होने के कारण इसे प्रकृत्स्ना कहा जाता है।
५. हाडहडा-जो प्रायश्चित्त प्राप्त हो उसे शीघ्र ही दे देना ।
प्रायश्चित्त के (१) मासिक और (२) चातुर्मासिक ये दो प्रकार हैं। शेष द्विमासिका, त्रिमासिक, पञ्चमासिक और पाण्मासिक प्रायश्चित्त प्रारोपणा से बनते हैं । निशीथ के बीसवें उद्देशक का मुख्य विषय आरोपणा ही है। स्थानांग में केवल आरोपणा के पाँच प्रकार ही प्रतिपादित हैं। वहाँ पर समवायांग में अट्ठाईस प्रारोपणा के प्रकार बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) एक मास की (२) पैतीस दिन की (३) चालीस दिन की (४) पैतालीस दिन की (५) पचास दिन की (६) सत्तावन दिन की (७) दो मास की (८) पैसठ दिन की (९) सत्तर दिन की (१०) पचहत्तर दिन की (११) अस्सी दिन की (१२) पचासी दिन की (१३) तीन मास की (१४) सत्तानवै दिन की (१५) सौ दिन की (१६) एक सौ पाँच दिन की (१७) एक सौ दस दिन की (१८) एक सौ पन्द्रह दिन की (१९) चार मास की (२०) एक सौ पच्चीस दिन की (२१) एक सौ तीस दिन की (२२) एक सौ पैतीस दिन की १. पंचविहे आयारकप्पे पण्णत्ते, तं जहा
मासिए उग्घातिए मासिए अणुग्धातिए चउमासिए उग्घातिए चउमासिए अणुग्घातिए आरोवणा । -ठाणं ५,१४५ पृ. ५८८ पारोवणा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहापट्टविया, ठविया, कसिणा, अकसिणा, हाडहडा ।
-ठाणं ५,१४९. पृ. ५८९ समवायांग, समवाय २८
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