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गाथाएं नहीं थीं। ये गाथाएं विशाखाचार्य की होती तो चूर्णिकार भी इन गाथाओं पर चूणि अवश्य लिखते और बीसवें उद्देशक की संस्कृत व्याख्या में भी इसका संकेत अवश्य करते। इसलिए यह स्पष्ट लगता है कि ये गाथाएँ
खाचार्य के द्वारा लिखी हुई नहीं हैं। यदि यह कल्पना की जाय कि ये गाथाएँ विशाखाचार्य के द्वारा ही लिखित हैं तो यहाँ पर 'लिहियं' शब्द का अर्थ रचना नहीं अपितु पुस्तक लेखन है । यदि यह माना जाय कि भद्रबाहु ने निशीथ की रचना की और उस रचना को विशाखाचार्य ने लिपिबद्ध किया, यह भी सम्भव नहीं लगता। यदि दिगम्बर परम्परा के विशाखाचार्य ने निशीथ को लिपिबद्ध किया होता तो दिगम्बर परम्परा में निशीथ को मान्यता प्राप्त होती, पर निशीथ की जो मान्यता श्वेताम्बर परम्परा में है वह दिगम्बर परम्परा में नहीं है। इसलिए ऐसा लगता है कि निशीथ के लिपिकर्ता विशाखाचार्य दिगम्बर परम्परा के नहीं, अपितु श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य होने चाहिए। यह अन्वेषणीय है कि वे कौन थे? कहां के थे? उनकी परिचय रेखाएँ क्या थीं?' प्रशस्ति की इन तीन गाथाओं को किसने बनाया और किसने निशीथ के अन्त में लिखा। यह सही प्रमाण प्राप्त नहीं है। ऐसी स्थिति में इन गाथानों के प्राधार पर निशीथ के कर्तुत्य का निर्णय करना उपयुक्त नहीं है। विशाखाचार्य के गुणों का उत्कीर्तन होने से ये गाथाएँ विशाखाचार्य के द्वारा निर्मित नहीं हैं। विशाखाचार्य के किसी शिष्य-प्रशिष्य ने ही ग्रन्थ के अन्त में अंकित किया हो।
हम पूर्व पंक्तियों में यह अंकित कर पाये हैं कि पञ्चकल्पचूणि के अनुसार नियू हक भद्रबाहु स्वामी हैं । इस मत का समर्थन आगम-प्रभावक पुण्य विजयजी ने भी किया है। यह आज अन्वेषण के पश्चात् स्पष्ट हो चुका है कि आचारचूला चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा नि!हण की गई है। आचारांग से प्राचारचूला की रचनाशैली सर्वथा पृथक् है । उसकी रचना आचारांग के पश्चात् हुई है।
एक शिष्य के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उद्भूत हुआ कि वर्तमान में तीर्थंकर प्रभु नहीं हैं, न श्रुतकेवली ही हैं न दसपूर्वी या नौपूर्वी ही हैं। ऐसी स्थिति में यदि कदाचित्त दोष लग जाय तो उसका शुद्धिकरण कैसे होगा? विशिष्ट ज्ञानी के अभाव में कौन प्रायश्चित्त देकर साधना को निर्मल बनाएगा। आचार्य ने शिष्य के मुआये हए चेहरे को देखा। उसकी बात सुनी। प्राचार्य ने बहुत ही मधुर शब्दों में कहा-'वत्स ! तुम्हारा चिन्तन उपयुक्त है। आज तीर्थंकर और चतुर्दश पूर्वी हमारे सामने नहीं हैं किन्तु चतुर्दशपूर्वधर द्वारा निबद्ध आचारप्रकल्प अध्ययन को धारण करने वाले प्राचार्य विद्यमान हैं । वे प्रायश्चित्त देकर शुद्धिकरण कर सकते हैं।'
जिनदासगणि महत्तर ने 'चोद्दसपुव्वणिबद्धो' शब्द के दो अर्थ किये हैं-'चतुर्दशपूर्वी द्वारा निबद्ध अथवा चतुर्दश पूर्वो से नि'ढ' । हम पूर्व पंक्तियों में यह लिख चुके हैं कि निशीथ नौवें पूर्व से निहूँढ किया गया है। अतः चतुर्दश पूर्वी नियूंढ से कोई विशेष अर्थ प्रकट नहीं होता। इसलिए जिनदासगणि महत्तर ने निशिथ के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाह को माना है। यह संगत प्रतीत होता है।
महामनीषी पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने विस्तार से अपनी प्रस्तावना में विविध दष्टियों से चिन्तन किया। पर वे स्वयं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके कि निशीथ के कर्ता कौन हैं। उनका यह मत अवश्य रहा कि
होने चाहिए और न विशाखाचार्य ही। निशीथ की रचना श्वेताम्बर और दिगम्बर मतभेद के पूर्व होनी चाहिए। भद्रबाह के पश्चात् ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पार्थक्य हआ है। निशीथ का
-पृ. १८-२४
१. निशीथ एक अध्ययन : पं. दलसुख मालवणिया से सार ग्रहण २. कामं जिणपुव्वधरा, करिसुं सोधिं तहा वि खलु एण्हि ।
चोद्दसव्विणि बद्धो, गणपरियट्टी पकप्पधरो॥
-निशीथभाष्य, ६६७४
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