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दोनों ही परम्पराओं में उल्लेख है, इसलिए संघभेद के पूर्व ही इसका निर्माण हो गया होगा । व्यवहारसूत्र जो आचार्य भद्रबाहु की ही कृति मानी जाती है, उसमें आचारप्रकल्प का अनेक बार उल्लेख हुआ है।' इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समक्ष निशीथ अवश्य था । भले ही आज जो निशीथ का रूप है वह न भी हो । इस आधार से fate को भद्रबाहु के समय से पूर्व की रचना मानना तर्कसंगत है । श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण से १५० वर्ष के अन्तर्गत ही निशीथ का निर्माण हो चुका था । पञ्चकल्पचूर्णि के अनुसार आचार्य भद्रबाहु ने निशीथ की रचना की, उनका भी समय यही है । दूसरी परम्परा के अनुसार यदि मानते हैं तो भद्रबाहु के पश्चात् ही विशाखाचार्य होते हैं । तो भी वीर निर्वाण से १७५ वर्ष के बीच निशीथ का निर्माण हो चुका था, ऐसा असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है |
पण्डित मुनि श्री कल्याणविजयजी गणि का स्पष्ट मन्तव्य है कि बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों आगमों को पूर्वश्रुत से निर्यूढ करने वाले भद्रबाहु स्वामी हैं और निशीथाध्ययन के निर्यू ढकर्ता भद्रबाहु न होकर आर्यरक्षितसूरि हैं । भद्रबाहु स्वामी ने कल्प और व्यवहार में जो प्रायश्चित्त का विधान किया है वह तत्कालीन श्रमणश्रमणियों के लिए पर्याप्त था किन्तु आर्यरक्षितसूरि के समय तक परिस्थिति में प्रत्यधिक परिवर्तन हो चुका था । मौर्यकालीन दुर्भिक्षादि की स्थिति समाप्त हो चुकी थी। राजा सम्प्रति मौर्य के समय श्रमण - श्रमणियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो चुकी थी । श्रमणों की संख्या की अभिवृद्धि के साथ अनेक नवीन समस्याएँ भी उपस्थित हो चुकी थीं । अतः कल्प और व्यवहार का प्रायश्चित्तविधान पर्याप्त प्रतीत हुआ । एतदर्थं नवीन स्थितियों पर नियन्त्रण करने के लिए विस्तार से प्रायश्चित्तविधान बनाना आवश्यक था, अतः श्रार्यरक्षित ने पूर्व साहित्य से वह न किया । कल्पाध्ययन में छह उद्देशक थे, व्यवहार में दस उद्देशक थे तो निशीथाध्ययन में बीस उद्देशक हैं और लगभग १४२६ सूत्रों में प्रायश्चित्त का विधान है ।
पञ्चकल्पभाष्य चूर्णिकार ने कल्प, व्यवहार आदि के साथ निशीथाध्ययन भी श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी द्वारा पूर्वश्रुत से उद्धृत बताया है किन्तु सत्य तथ्य यह नहीं है । बृहत्कल्प की भाषा और प्रतिपादित विषयों तथा निशीथाध्ययन के सूत्रों की भाषा और उसमें प्रतिपादित विषयों में स्पष्ट रूप से भिन्नता प्रतीत होती है । यह सत्य है कि बृहत्कल्प की भाषा और व्यवहार की भाषा में भी भिन्नता है पर वह भिन्नता व्यवहार में बाद में किये गये परिवर्तनों के कारण है । यही कारण है कि व्यवहारसूत्र में निशीथाध्ययन का प्रकल्पाध्ययन यह नाम प्राप्त होता है । यह परिवर्तन सम्भव है आर्यरक्षितसूरि के पश्चात् हुआ हो । ३
निशीथ का आधार और विषय वर्णन
निशीथ श्राचारांग की पांचवीं चूला है । नाम निशीथाध्ययन भी है । इसमें बीस उद्देशक हैं। बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया प्रतिपादित की गई है ।
उद्देशक प्रथम में मासिक अनुद्घातिक ( गुरु मास) प्रायश्चित्त का उल्लेख है । उद्देशक दूसरे से लेकर पांचवें तक मासिक उद्घातिक (लघु मास ) प्रायश्चित्त का उल्लेख है । उद्देशक छह से लेकर ग्यारह तक चातुर्मासिक अनुद्घातिक (गुरु चातुर्मास ) प्रायश्चित्त का उल्लेख है । उद्देशक बारह से लेकर बीस तक चातुर्मासिक उद्घा
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इसे एक स्वतन्त्र अध्ययन भी कहते हैं । इसीलिए इसका अपर पूर्व के उन्नीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान है और
व्य. उद्देश ३. १०; उद्देश ५, सूत्र १५; उद्देश ६, सूत्र ४-५ इत्यादि ।
निशीथ : एक अध्ययन पृ. २४-२५
प्रबन्ध पारिजात में 'निशीथसूत्र का निर्माण और निर्माता' लेख ।
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