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हेतु उसकी शुद्धि वृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान । उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है और वह है साधक को उपासना के पथ पर आगे बढ़ाना । सामान्य साधक के मानस में यह विचार उदभत हो
स में यह विचार उद्भूत हो सकते हैं कि जब उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों का लक्ष्य एक है तो फिर दो रूप क्यों हैं ?
__ उत्तर में निवेदन है कि जैन संस्कृति के मर्मज्ञ महामनीषियों ने मानव की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता को लक्ष्य में रखकर तथा संघ के समुत्कर्ष को ध्यान में रखकर उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण किया है। निशीथभाष्यकार ने लिखा है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया गया है,
परिस्थिति में विशेष कारण से वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है।' उत्सर्ग और अपवाद, विरोधी नहीं
प्राचार्य जिनदासगणि महत्तर२ ने लिखा है कि जो बातें उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध की गई हैं वे सभी बातें कारण सन्मुख होने पर कल्पनीय व ग्राह्य हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है, वे एक-दूसरे के पूरक हैं । साधक दोनों के सुमेल से ही साधना पथ पर सम्यक् प्रकार से बढ़ सकता है। यदि उत्सर्ग और अपवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी हों तो वे उत्सर्ग और अपवाद नहीं हैं किन्तु स्वच्छन्दता का पोषण करने वाले हैं । आगम साहित्य में दोनों को मार्ग कहा है। एक मार्ग राजमार्ग की तरह सीधा है तो दूसरा जरा घुमावदार है। सामान्य विधि : उत्सग
उत्सर्ग मार्ग पर चलना यह साधक के जीवन की सामान्य पद्धति है । एक व्यक्ति राजमार्ग पर चल रहा है, किन्तु राजमार्ग पर प्रतिरोध-विशेष उत्पन्न होने पर वह राजमार्ग को छोड़कर सन्निकट की पगडण्डी को ग्रहण करता है । कुछ दूर चलने पर जब अनुकूलता होती है तो पुनः राजमार्ग पर लोट प्राता है। यही स्थिति साधक की उत्सर्ग मार्ग से अपवाद मार्ग को ग्रहण करने के सम्बन्ध में है और पुन: यही विधि अपवाद से उत्सर्ग में आने की है।
उत्सर्ग मार्ग सामान्य विधि है। इस विधि पर वह निरन्तर चलता है। बिना विशेष परिस्थिति के उत्सर्ग मार्ग नहीं छोड़ना चाहिये । जो साधक बिना कारण ही उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर अपवाद मार्ग को अपनाता है वह पाराधक नहीं, अपितु विराधक है। पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति यदि औषधि ग्रहण करता है या रोग मिट जाने पर भी बीमारी का अभिनय कर औषधि आदि ग्रहण करता है तो वह अपने कर्तव्य से च्युत होता है । विशेष कारण के अभाव में अपवाद का सेवन नहीं करना चाहिए। साथ है जिस कारण से अपवाद का सेवन किया है, उस कारण के समाप्त होते ही उसे पुनः उत्सर्ग मार्ग को अपनाना चाहिए । विशिष्ट विधि : अपवाद
हम पूर्व में बता चुके हैं कि अपवाद एक विशिष्ट मागं है । उत्सर्ग के समान ही वह संयम साधना का ही मार्ग है। पर अपवाद वास्तविक अपवाद होना चाहिए। यदि अपवाद के पीछे इन्द्रियपोषण की भावना है तो वह अपवाद मार्ग नहीं है। अतः साधक को अपवाद मार्ग में सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है। जितना अति प्रावश्यक हो, उतना ही अपवाद का सेवन किया जा सकता है, निरन्तर नहीं। अपवाद मार्ग पर तो किसी विशेष स्थिति
१. उस्सग्गेण णिसिद्धाणि जाणि दव्वाणि संथरे मूणिणो। कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति ॥
-निशीथभाष्य ५२४५ जाणि उस्सग्गे पडिसिद्धाणि उप्पणे कारणे सव्वाणि वि ताणि कप्पंति । ण दोषो....।-निशीथचणि ५२४५
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