Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक - ९
३९
[१२] तत्पश्चात् वह शिवराजर्षि प्रथम छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, फिर उन्होंने वल्कलवस्त्र पहिने और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । वहाँ से किढीण (बांस का पात्र — छाबड़ी) और कावड़ को लेकर पूर्वदिशा का पूजन किया। (इस प्रकार प्रार्थना की— ) हे पूर्वदिशा के (लोकपाल) सोम महाराज ! प्रस्थान (परलोक - साधना मार्ग) में प्रस्थित ( प्रवृत्त) हुए मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें और यहाँ (पूर्वदिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति (हरित) हैं, उन्हें लेने की अनुज्ञा दे; यों कर कर शिवराजर्षि ने पूर्वदिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति मिली, उसे ग्रहण की और कावड़ में लगी हुई बांस की छबड़ी में भर ली। फिर दर्भ (डाभ), कुश, समिधा और वृक्ष की शाखा को मोड़ कर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए। कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीप कर शुद्ध किया। तत्पश्चात् डाभ और कलश में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध की । फिर जलक्रीड़ा की, पानी अपने देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र (शुचिभूत) होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लिए हुए गंगा महानदी से बाहर निकले और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कुटी में उन्होंने डाभ, कुश और बालू से वेदी बनाई। फिर मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी घिसी (मथन किया) और आग सुलगाई। अग्नि जब धधकने लगी तो उसमें समिधा की लकड़ी डाली और आग अधिक प्रज्वलित की। फिर अग्नि के दाहिनी ओर ये सात वस्तुएँ (अंग) रखीं, यथा— ( १ ) सकथा ( उपकरण-विशेष), (२) वल्कल, (३) स्थान, (४) शय्याभाण्ड, (५) कमण्डलु, (६) लकड़ी का डंडा और (७) अपना शरीर । फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव (अग्निदेव) को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया।
१३. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीतो पच्चोरुहइ, आ० प० २ वागल० एवं जहा — पढमपारणगं, नवरं दाहिणं दिसं पोक्खेति । दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं०, सेसं तं चेव जाव आहारमाहारेइ ।
[१३] तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला (छट्ठखमण) अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे की जो विधि की थी. उसी के अनुसार दूसरे पारणे में भी किया। इतना विशेष है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की। हे दक्षिणदिशा के लोकपाल यम महाराज ! परलोक - साधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अतिथि की पूजा करके फिर उसने स्वयं आहार किया।
१४. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तए णं से सिवे