Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-९
३७
सिंहासनासीन करके शिवभद्र कुमार का राज्याभिषेक करने और उसे आशीर्वचन कहने का वर्णन है। ___कठिन शब्दों का अर्थ—उवट्ठवेह—उपस्थित करो।णिसियावेत्ता—बिठा कर । सोवणियाणंसोने के बने हुए । भोमेज्जाणं-मिट्टी के बने हुए। पम्हलसुकुमालाए—रोंयेदार सुकुमाल-मुलायम। परमायु पालयाहि-परम आयु का पालन करो—दीर्घायु होओ। शिव राजर्षि द्वारा दिशाप्रोक्षकतापस-प्रव्रज्याग्रहण
११. तए णं से सिवे राया अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-णक्खत्त-दिवस-मुहत्तंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेति, वि० उ० २ मित्त-णाति-नियग जाव परिजणं रायाणो य खत्तिया य आमंतेति, आ० २ ततो पच्छा पहाते जाव सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासण-वरगए तेणं मित्त-नाति-नियग-सयण जाव परिजणेणं राईहि य खत्तिएहि य सद्धिं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं एवं जहा तामली (स. ३ उ. १ सु. ३६) जाव सक्कारेति सम्माणेति, सक्कारे० स० २ तं मित्त-नाति जाव परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभदं च रायणं आपुच्छति, आपुच्छित्ता सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छु जाव भंडगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति तं चेव जाव तेसिं अंतियं मुण्डे भविता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए। पव्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति—कप्पति मे जावज्जीवाए छठें तं चे जाव (सु. ६) अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अय० अभि० २ पढमं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
[११] तदन्तर किसी समय शिव राजा (भूतपूर्व हस्तिनापुर नृप) ने प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और दिवस एवं शुभ मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, परिजन, राजाओं एवं क्षत्रियों को आमंत्रित किया। तत्पश्चात् स्वयं ने स्नानादि किया, यावत् शरीर पर (चन्दनादि का लेप किया।) ('फिर) भोजन के समय भोजनमण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, यावत् परिजन, राजाओं और क्षत्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन किया। फिर तामली तापस (श. ३, उ. १, सू. ३६ में वर्णित वर्णन) के अनुसार, यावत् उनका सत्कार-सम्मान किया। तत्पश्चात् उन मित्र, ज्ञातिजन आदि सभी की तथा शिवभद्र राजा की अनुमति लेकर लोढी—लोहकटाह, कुड़छी आदि बहुत से तापसोचित भण्डोपकरण ग्रहण किये और गंगातट निवासी जो वानप्रस्थ तापस थे, वहाँ जा कर, यावत् दिशाप्रोक्षक तापसों के पास मुण्डित होकर दिशाप्रोक्षक-तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया। प्रव्रज्या ग्रहण करते ही शिवराजर्षि ने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया—आज से जीवन पर्यन्त मुझे बेले-बले (छट्ठछट्ठ-तप) करते हुए विचरना कल्पनीय है; इत्यादि पूर्ववत् (सू. ६ के अनुसार) यावत् अभिग्रह धारण करके प्रथम छट (बेले का) तप अंगीकार करके विचरने लगा।
१. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. २, पृ. ५१८-५१९ २. भगवती. विवेचन, भा. ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १८७९