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दोहा
१. पुण्य नौ प्रकार से निष्पन्न होता है। उस करनी को निरवद्य जानें। पुण्य बयांलीस प्रकार से भोग में आता है। बुद्धिमान् उसकी पहचान करें।
२. जिस करनी से पुण्य निष्पन्न होता है, उसमें निर्जरा निश्चित होती है, यह जानें। निर्जरा की करनी में जिन-आज्ञा है, इसमें जरा भी शंका न करें।
३. कुछ साधु जैन कहलाते हैं। उन्होंने जिन-मार्ग को पीठ दे दी है। वे कुपात्र को दान देने में पुण्य बतलाते हैं। उनकी आभ्यन्तर आंखे फूट गई है।
४. जो बिना छाना हआ कच्चा पानी पिलाने में पुण्य और धर्म बतलाते हैं, वे जिन मार्ग से दूर हैं। वे अज्ञानवश भ्रम में भूले हुए हैं।
५. साधु के अतिरिक्त अन्य सबको सचित्त-अचित्त देने में वे पुण्य कहते हैं और (अपने कथन की पुष्टि में) स्थानाङ्ग सूत्र का नाम लेते हैं, परन्तु मूल में ऐसा पाठ न होने से ये अर्थ शून्य-व्यर्थ हैं।
६. ऐसा विपरीत अर्थ भी स्थानाङ्ग की किसी एक प्रति में घुसा दिया गया है, परन्तु सब प्रतियों में नहीं है। देखकर जांच करें।
७. पुण्य उपार्जन किस प्रकार होता है यह सूत्र में देखें । वीर जिनेश्वर ने जो कहा है, उसे चित्त लगाकर सुनें।