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नव पदार्थ
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४४. भोगांतराय कर्म का क्षयोपशम होने से भोग की लब्धि उत्पन्न होती है और उपभोगांतराय कर्म का क्षयोपशम होने से उपभोगलब्धि उत्पन्न होती है ।
४५. दान देने की लब्धि निरन्तर रहती है। दान देना योग-व्यापार है। लाभ की लब्धि भी निरन्तर रहती है किन्तु वस्तु लाभ कभी - कभी करता है ।
४६. भोग की लब्धि भी निरन्तर रहती है । भोग का सेवन योग-व्यापार है । उपभोग - लब्धि भी निरन्तर रहती है, उपभोग भोगने के समय होता है ।
४७. अंतराय कर्म के अलग होने से जीव को पुण्यानुसार भोग-उपभोग मिलते हैं। साधु पुद्गलों का सेवन करते हैं, वह शुभयोग है । अन्य जीवों का भोग सेवन अशुभ योग है ।
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४८. वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम होने से वीर्य - लब्धि उत्पन्न होती है । वीर्यलब्धि जीव की शक्ति है और वह उत्कृष्ट रूप में अनन्त होती है।
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४९. उस वीर्य-लब्धि के तीन भेद हैं, उनकी पहचान करें । बाल-वीर्य अविरत के होता है और वह चतुर्थ गुणस्थान तक रहता है ।
५०. पण्डित-वीर्य पण्डित के बतलाया गया है। यह छट्ठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। बाल - पण्डित वीर्य श्रावक के होता है। इन तीनों ही वीर्यों को उज्ज्वल गुण जानें।
५१. जीव कभी इस वीर्य को फोड़ता ( काम में लेता) हैं, वह योग-व्यापार है । सावद्य व निरवद्य योग होते हैं परन्तु वीर्य जरा भी सावद्य नहीं होता ।
५२. वीर्य-लब्धि निरन्तर चौदहवें गुणस्थान तक रहती है । बारहवें गुणस्थान तक क्षयोपशम भाव है तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में क्षायिक भाव ।
५३. लब्धि - वीर्य को वीर्य कहा गया है और करण - वीर्य को योग कहा गया है। जब तक शक्ति वीर्य रहता है तभी तक पुद्गल - संयोग रहता I