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नव पदार्थ
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१०. ऊन रहना (कमी करना) ऊनोदरी तप है। वह द्रव्य और भाव रूप से अलग-अलग है। उपकरण कम रखना और आहार कम करना द्रव्य ऊनोदरी है।
११. क्रोध आदि का वर्जन कर कलह आदि का निवारण करना भाव ऊनोदरी है। आहार और उपधि में समता भाव रखना यह उत्तम ऊनोदरी तप हैं।
१२. भिक्षा-त्यागने से भिक्षाचारी तप होता है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अभिग्रह भेद से विविध प्रकार का होता है। उनका बहुत विस्तार है।
१३. शुद्ध मन से रसों का त्याग करता है, विगय आदि का स्वाद छोड़ता है तथा अरस और विरस आहार को समभाव से भोगता है, उसके तप की समाधि होती है।
१४. शरीर को कष्ट देने से काय क्लेश तप होता है। वह विविध प्रकार के आसन करने, शीत ताप आदि सहने, खाज न करने, शरीर शोभा और श्रृंगार न करने से होता
१५. प्रतिसंलीनता तप चार प्रकार का होता है। उनके अलग-अलग नाम हैं (१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता (२) कषाय प्रतिसंलीनता (३) योग प्रतिसंलीनता और (४) विविक्तशयनासनसेवन।
१६. श्रोत्र-इन्द्रिय को उसके विषय शब्दों को रोकना, विषय-शब्द कभी न सुनना, कभी विषय-शब्द कान में पड़े तो उन पर तनिक भी राग-द्वेष न करना श्रोत्रइन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप है।
१७. इसी तरह चक्षुरिन्द्रिय की रूप से प्रतिसंलीनता, घ्राणेन्द्रिय की गंध से प्रतिसंलीनता, रसनेन्द्रिय की रस से और स्पर्शनेन्द्रिय की स्पर्श से प्रतिसंलीनता को श्रोत्रेन्द्रिय की तरह जान लें।
१८. क्रोध की उत्पत्ति का निरोध करना, उदय में आए हुए को निष्फल करना, इसी तरह मान, माया और लोभ को जानें। यह कषाय संलीनता तप होता है।