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नव पदार्थ
१७१ १८. नाम और गौत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहुर्त की है और उत्कृष्ट बीस कोटाकोटि सागर होती है।
१९. एक जीव के आठ कर्मों के अनन्त पुद्गल-प्रदेश लगे रहते हैं। अभव्य जीवों की संख्या के माप से भगवान ने इन पुद्गलों की संख्या अनन्त गुणा बतलाई है।
२०. वे कर्म जीव के अवश्य ही उदय में आएंगें, भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। कर्मों के उदय में आने से ही सुख-दुःख होता है। बिना उदय के सुख-दुःख नहीं होता।
२१. शुभ परिणाम से बांधे गए कर्म शुभ रूप में उदय में आएंगे और अशुभ परिणामों से बांधे गए कर्मों से दुःख होगा।
२२. आठों ही कर्म पांच वर्ण, दो गंध और पांच रसों से युक्त होते हैं। आठों ही कर्म चतुःस्पर्शी होते हैं। आठों ही कर्म पुद्गल और रूपी हैं।
२३. कर्म रुक्ष और स्निग्ध तथा ठण्डा (शीत) और गर्म (उष्ण) होते हैं। कर्म हल्के (लघु), भारी (गुरु), सुहावने (मृदु) या खरदरे (कर्कश) नहीं होते।
२४. जैसे कोई तालाब जल से पूर्ण भरा हो, कोई भी कोर खाली न रही हो, उसी तरह जीव कर्मों से भरे रहते हैं। यह उपमा एकदेशीय है।
२५. एक जीव के असंख्यात प्रदेश असंख्यात तालाबों की तरह हैं। ये सब प्रदेश कर्मों से भरे रहते हैं, मानो चतुष्कोणीय बावड़ियां जल से भरी हों।
२६. जीव का एक-एक प्रदेश है वहां कर्मों के अनन्त-अनन्त प्रदेश हैं। वे सर्व प्रदेश बावड़ी की तरह भरे हुए हैं। कर्म पुद्गलों ने उनमें प्रवेश किया है।
२७. तालाब इस विधि से खाली होता है। पहले नालों को रोका जाता है, फिर मोरियों आदि को खोला दिया जाता है। तब तालाब खाली हो जाता है।