________________
अनुकम्पा री चौपई
२५३
१६. सौ सौ व्यक्ति सभी प्रसंगों में बचे हैं। कम ज्यादा हिंसा भी सब जगह हुई है। सब प्रसंगों में यदि धर्म बराबर नहीं बताते तो मूले और पानी की बात भी कट जाती है।
१७. बात जाती हुई देख कर कभी कह देते हैं कि सभी स्थानों में (सातों में) पाप और धर्म दोनों है, किन्तु सम्यग् दृष्टि इस पर विश्वास नहीं करते। उन्होंने तो असत्य श्रद्धा का भ्रम निकाल दिया।
१८. असंयति जीव के जीने और मरने की वांछा करना निश्चय ही राग और द्वेष है। इसे जिनेश्वर देव ने धर्म नहीं बताया। यदि संशय हो तो अंग और उपांग सूत्रों को देख लो।
१९. काच के मणकलों को देख कर अज्ञानी उसे बहुमूल्य रत्न समझता है। जब वह जौहरी की नजर में आता है, तब उसका मूल्य कोडियों में हो जाता है।
२०. मूला खिलाने में जो मिश्र धर्म कहते हैं, वह श्रद्धा काच-मणि के बराबर है। तथापि वह श्रद्धा बहुमूल्य रत्न की तरह धारण की गयी है। यह कर्मों का प्रभाव है, जिससे न्याय नहीं दीखता।।
२१. जो जीव हिंसा कर, झूठ बोल कर, चोरी कर और मैथुन-सेवन जैसा अकार्य कर मरते जीवों को बचाता है।
२२. धन देकर, क्रोध आदि अठारह पापों का सेवन कराके तथा स्वयं इन पापों का सेवन करके दूसरे जीवों को मरने से बचाता है।
२३. हिंसा करके जीवों को बचाने में यदि पाप और धर्म दोनों होते हैं तो अठारह पापों के विषय में भी यही समझना चाहिए। पर इस चर्चा को कोई बिरला व्यक्ति ही समझ सकता है।
२४. जो एक पाप में मिश्र कहते हैं और सतरह प्रकार के पाप कार्य में दूसरी भाषा बोलते हैं। इस विपरीत मान्यता का न्याय नहीं मिलता। तब उल्टा झगड़ा करने लग जाते हैं।