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अनुकम्पा री चौपई
३१३ ३७. तब कहते हैं, हमें हाथ फेरना नहीं है। चाहे वे श्रावक मरें अथवा बहुत दुःखी हों। हम उनका जीना, मरना कुछ भी नहीं चाहते। हमें गृहस्थ से क्या काम है?।
३८. दुष्ट गोशालक को भगवान ने बचाया उसमें तो एकांत धर्म कहते हैं, और मरते हुए श्रावकों को नहीं बचाते। उनकी (अपनी) श्रद्धा का उन्होंने ही भ्रम प्रगट कर दिया।
३९. श्रावक को बचाने में धर्म नहीं मानते और गोशालक को बचाने में धर्म मानते हैं। वे विवेक शून्य, सुध बुध से रहित हैं। विपरीत श्रद्धा से पाप कर्म का बंधन करते हैं।
४०. जब पापात्मा दुष्टी गोशालक के लिए भगवान महावीर ने लब्धि फोड़ी तो सौ श्रावकों को मरते देखकर वे उनके हाथ क्यों नहीं फेरते?।
४१. गोशालक को बचाने में धर्म कहते हो तो स्वयं उस धर्म की रीति को क्यों छोड़ते हो? मरते हुए सौ श्रावकों को नहीं बचाते। ऐसे विवेक शून्य लोगों का विवेक शून्य लोग ही विश्वास करते हैं।
४२. दुष्टात्मा गोशालक को भगवान महावीर ने बचाया, उसमें तो साक्षात धर्म कहते हैं, किन्तु मरते हुए सौ श्रावकों को नहीं बचाते। ऐसे विवेक भ्रष्ट लोगों की श्रद्धा और बात दोनों ही बिगड़ गई।
४३. श्रावक टकराकर गिर रहा है। उसे सहारा देकर रक्षा नहीं करते और गोशालक को बचाने में धर्म कहते हैं। यह भी उनके भीतर अंधेरा है।